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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... षष्टम अध्याय........{408} के स्वरूप का तथा क्षपक श्रेणी, योगनिरोध, शैलेशीकरण और मोक्ष के स्वरूप की चर्चा की गई है । यद्यपि इस ग्रन्थ के गुजराती अनुवाद में अनुवादक ने क्षपकश्रेणी की चर्चा के पूर्व गुणस्थानों का विस्तृत विवेचन किया है, किन्तु मूल कृति में तो मात्र यही कहा गया है कि क्षपकश्रेणी करनेवाला साधक मिथ्यात्वमोह और सम्यग्मिथ्यात्वमोह तथा उसके पश्चात् सम्यग्मोह का क्षय करता है। इसके पश्चात् कषायों और वेद आदि के संक्रमण एवं क्षपण का विवेचन है । इस समग्र विवेचन में यद्यपि गुजराती अनुवादक ने स्थान-स्थान पर गुणस्थानों का निर्देश किया है, किन्तु हमें मूल श्लोकों में कहीं भी गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कोई निर्देश प्राप्त नहीं होता है। प्रशमरति के अन्त में मोक्ष के स्वरूप का विवेचन करते हुए यह बताया गया है कि मुनि और गृहस्थ किस प्रकार की साधना करके मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं । यहाँ भी गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा नहीं है, अतः यह सुनिश्चित हो जाता है कि मूल ग्रन्थ में कहीं भी गुणस्थान सम्बन्धी कोई निर्देश उपलब्ध नहीं है । यही कारण है कि विद्वत् वर्ग उमास्वाति के काल तक गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विचारणा का अभाव मानता है। सिद्धसेन दिवाकर की कृतियों में गुणस्थान चर्चा का अभाव जैनधर्म दर्शन के प्राचीनतम विशिष्ट लेखकों में सिद्धसेन दिवाकर का नाम उल्लेखित है । सिद्धसेन दिवाकर का सन्मतितर्क प्रकरण२७३ और कुछ द्वात्रिंशिकाएं उपलब्ध होती हैं । सिद्धसेन दिवाकर का काल लगभग चौथी शताब्दी ही माना जाता है । सन्मतितर्क प्रकरण में हमें कहीं भी गुणस्थान की अवधारणा का संकेत नहीं मिलता है, इसी प्रकार इनकी द्वात्रिंशिकाओं में भी गुणस्थान का अभाव है। इस आधार पर कुछ विद्वान इस निष्कर्ष पर पहुँचे है कि गुणस्थान सिद्धान्त का विकास सिद्धसेन से परवर्ती है । यद्यपि यहाँ यह भी कहा जा सकता है कि जहाँ सन्मतितर्कप्र तः अनेकान्तवाद की तार्किक स्थापना करनेवाला प्रथम ग्रन्थ है, वहीं सिद्धसेन दिवाकर की द्वात्रिंशिकाएं स्तुति परक है । इनके विषयों का सम्बन्ध भी गुणस्थान सिद्धान्त से नहीं है। अतः इनमें गुणस्थान सिद्धान्त का विवेचन नहीं होना स्वभाविक है। इस प्रकार सिद्धसेन दिवाकर की कृतियों में गुणस्थान चर्चा का प्रायः अभाव ही है । त्रसमन्तभद्र के आप्तमीमांसा आदि ग्रन्थों में गुणस्थान चर्चा का प्रायः अभाव : दिगम्बर परम्परा के समर्थ दार्शनिकों में आचार्य समन्तभद्र का स्थान अद्वितीय है । जैनदर्शन के अनेकान्त सिद्धान्त का तार्किक रूप से प्रतिष्ठापन करनेवाले आचार्यों में उनकी गणना की जाती है । आचार्य समन्तभद्र की मुख्य कृतियों में आप्तमीमांसा, युत्यानुशासन, स्वयंभूस्तोत्र, स्तुतिविद्या प्रमुख है । कुछ विद्वान रत्नकरण्डक श्रावकाचार के प्रणेता भी इनको मानते है । इसके अतिरिक्त कुछ ग्रन्थों में जीवसिद्धि और गंधहस्तिमहाभाष्य के रचयिता के रूप में भी इनका उल्लेख मिलता है । इनके इन ग्रन्थों में हमने विशेष रूप से आप्तमीमांसा का अवलोकन किया। इस ग्रन्थ में मुख्य रूप से दर्शनजगत में प्रतिष्ठित विभिन्न दर्शनों और उनकी दार्शनिक मान्यताओं की एकान्तिक दृष्टि की समीक्षा करते हुए अनेकान्त की स्थापना की गई है । इस सम्पूर्ण ग्रन्थ का अवलोकन करने पर हमें इसमें गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कोई विवेचन परिलक्षित नहीं होता है । यद्यपि मूल ग्रंथ में सर्वज्ञता की सिद्धि करते हुए अर्हन्त के विशिष्ट गुणों का भी उल्लेख हुआ है, किन्तु मूल ग्रन्थ में कहीं भी न तो गुणस्थान शब्द का उल्लेख मिलता है और न कहीं गुणस्थान सम्बन्धी कोई विवेचन ही उपलब्ध होता है । मात्र इस ग्रन्थ के दशम परिच्छेद के श्लोक क्रमांक ६८ की तत्वदीपिका नामक टीका में बंध सम्बन्धी विवेचन में गुणस्थानों का उल्लेख हुआ है । इनके अन्य ग्रन्थ स्वयंभूस्तोत्र और स्तुतिविद्या स्तुतिपरक है । इनमें वीतराग परमात्मा के स्वरूप का निवर्चन ही है । गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी सुस्पष्ट विवेचन का यहाँ भी प्रायः अभाव ही है। ३७३ सन्मत्तितर्कप्रकरण : सिद्धसेन दिवाकर, सम्पादक : पं.सुखलालजी अहमदाबाद ३७४ आप्तमीमांसा, लेखक : समन्तभद्र, सम्पादक :प्रो. उदयचन्द्र जैन, प्रकाशक : श्री गणेशवर्णी दि. जैन संस्थान नरिया वाराणसी Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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