SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 457
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... षष्टम अध्याय.......{407} हमने यह पाया कि जीवसमास अपने सत्प्ररूपणाद्वार में न केवल चौदह गुणस्थानों के नामों का निर्देश करता है, अपितु वह चौदह मार्गणाओं में गुणस्थान की अवधारणा को अवतरित ही करता है। चौदह गुणस्थानों का चौदह मार्गणाओं में यह अवतरण, जीवसमास के सत्प्ररूपणाद्वार में षट्खण्डागम के जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड के सत्प्ररूपणाद्वार में, तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका के प्रथम अध्याय के आठवें सूत्र की टीका में, समान रूप से मिलता है । समान्यतया इस चर्चा में हमें इन तीनों ही ग्रन्थों में कोई वैचारिक भिन्नता परिलक्षित नहीं हुई है। यद्यपि परम्पराओं की अपेक्षा से यह विवाद का विषय हो सकता है कि इनमें किस ग्रंथकार ने किससे ग्रहण किया? किन्तु जैसा पंडित हीरालालजी शास्त्री ने स्वीकार किया है कि षट्खण्डागम के जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड का आधार जीवसमास है, तो ऐसी स्थिति में हम कालक्रम के आधार पर यह निर्णय कर सकते हैं कि उपलब्ध साक्षीयों के आधार पर जीवसमास का स्थान प्रथम माना जा सकता है। चूंकि पूज्यपाद देवनन्दी दिगम्बर परम्परा के ही आचार्य हैं और उनका काल षटखण्डागम की रचना के पश्चात् ही है, अतः उन्हें यह अवधारणा षट्खण्डागम से ही प्राप्त हुई होगी। यह भी हो सकता है कि जीवसमास और षट्खण्डागम की रचना के पूर्व अविभाजित जैन संघ में यह अवधारणा विकसित हुई होगी और दोनों ही परम्पराओं ने उसका अनुसरण किया होगा। अतः हम इस विवाद में न पड़कर गुणस्थानों और मार्गणास्थानों के सहसम्बन्ध का यह विचार किसने किससे लिया? केवल इतना कहना पर्याप्त होगा कि गुणस्थान और मार्गणास्थान के इस सहसम्बन्ध की चर्चा जीवसमास, षट्खण्डागम और सर्वार्थसिद्धि टीका में समानरूप से उपलब्ध है। इसके पश्चात् जीवसमास के परिणामद्वार में चौदह गुणस्थानों में जीवों की संख्या का विवेचन किया गया है। यह चर्चा भी षटखण्डागम और सर्वार्थसिद्धि में उपलब्ध होती है। जीवसमास के तीसरे क्षेत्रद्वार में किस गणस्थानवी जीव, लोक के कितने क्षेत्र में रहे हुए हैं, इसकी चर्चा है। इसके आगे स्पर्शनद्वार यह स्पष्ट करता है कि किस गुणस्थानवी जीव, लोक के कितने क्षेत्र का स्पर्श करते हैं। क्षेत्र और स्पर्शन सम्बन्धी ये उल्लेख भी षटखण्डागम, सर्वार्थसिद्धि और जीवसमास में समानरूप से उपलब्ध होते हैं। इस सम्बन्ध में इन तीनों में भी हमें कोई विचारभेद परिलक्षित नहीं होता है। जैसा कि पूर्व में बताया गया है कि जीवसमास के पंचम कालद्वार में विशेष की अपेक्षा से और सामान्य की अपेक्षा से, विविध गुणस्थानों के काल का विवेचन किया गया है। इसके पश्चात् छठे अन्तरद्वार में काल की अपेक्षा से ही विभिन्न गुणस्थानों के विरहकाल या अन्तराल की चर्चा उपलब्ध होती है। इस चर्चा में, इस अन्तराल को भी जघन्यकाल और उत्कृष्टकाल की अपेक्षा से विवेचित किया गया है। जीवसमास के सप्तम भावद्वार में गुणस्थानों की कोई विशेष चर्चा हमें उपलब्ध नहीं होती है, किन्तु इसके अष्टम अल्प-बहुत्वद्वार में पुनः गुणस्थान सम्बन्धी विवरण उपलब्ध है। इसमें चौदह गुणस्थानों में रहे हुए जीवों में अल्प-बहुत्व का विचार किया गया है। यद्यपि यहाँ अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्तमोह और क्षीणमोह - इन गुणस्थानों का स्पष्ट नामनिर्देशन करके उपशमक या क्षपक जीवों की अपेक्षा से उनके अल्प-बहुत्व की चर्चा की गई है। इसी द्वार में पुनः देव, नारक, तिर्यंच और मनुष्य - इन चारों गतियों में संभावित गुणस्थानों की चर्चा के साथ-साथ उनके अल्प-बहुत्व का भी विचार किया गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जीवसमास अपने भावद्वार को छोड़कर शेष सभी द्वारों में किसी न किसी रूप में गुणस्थानों का अवतरण करता है। संक्षेप में, जीवसमास में चौदह गुणस्थानों का आठ अनुयोगद्वारों और चौदह मार्गणाओं में अवतरण करके, उनके पारस्परिक सहसम्बन्ध को स्पष्ट किया गया है। इस अपेक्षा से हम यह कह सकते हैं कि सामान्यरूप से जैन परम्परा में और विशेषरूप से श्वेताम्बर जैन परम्परा में गणस्थान सिद्धान्त की एक समग्र दृष्टि से विवेचना करनेवाला जीवसमास एक प्रथम और महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। त्र उमास्वाति के प्रशमरति प्रकरण में गुणस्थान चर्चा का अभावk प्रशमरति प्रकरण७२ तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता आचार्य उमास्वाति की ही कृति मानी जाती है । इस कृति में व्यक्ति में वैराग्यभाव या प्रशमभाव का विकास कैसे हो, इस दृष्टि से विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है । प्रस्तुत कृति में वैराग्य में बाधक कषाय और ऐन्द्रिक विषयों के संयम की चर्चा के पश्चात् आचारमार्ग का और विशेषरूप से यतिधर्म का विवेचन हुआ है । इसी क्रम में ध्यानों ३७२ प्रशमरति, लेखक : उमास्वाति Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy