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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
षष्टम अध्याय........{410)
में इनका अभाव ही है । यहाँ हम देखते हैं कि आत्मा तत्व ही है। मार्गणास्थान और गुणस्थान, ये संसारी आत्मा में ही घटित होते हैं,शुद्ध आत्मा में नहीं होते हैं । योगिन्दुदेव के इस कथन में हमें आचार्य कुन्दकुन्द के विचारों की ही झलक मिलती है। आचार्य कुन्दकन्द ने नियमसार में स्पष्टरूप से यह कहा है कि आत्मा न तो मार्गणास्थान है, नजीवस्थान है और न ही गुणस्थान : क्योंकि मार्गणास्थान, जीवस्थान और गुणस्थान की चर्चा कर्म एवं शरीरों के आधार पर ही की जाती है । कर्म और शरीर आत्मा से भिन्न है, इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्द के समान ही योगिन्दुदेव ने मार्गणास्थान और गुणस्थान की अवधारणा को व्यवहारनय की अपेक्षा से ही स्वीकार किया है । योगिन्दुदेव के इस उल्लेख से इतना स्पष्ट होता है कि वे गुणस्थान और मार्गणास्थान के पारस्परिक सम्बन्धों को भी स्पष्ट रूप से जानते थे; यह स्वाभाविक ही है, क्योंकि योगिन्दुदेव का काल लगभग सातवीं-आठवीं शताब्दी का माना जाता है । उनके पूर्व आचार्य पूज्यपाद देवनन्दी (लगभग छठी शताब्दी) अपनी तत्त्वार्थसूत्र की सवार्थसिद्धि टीका में मार्गणास्थानों और गुणस्थानों के सहसम्बन्धों की विस्तृत चर्चा कर चुके थे। योगिन्दुदेव ने चाहे अपने ग्रन्थों में मार्गणास्थान
और गुणस्थान की विस्तृत चर्चा नहीं की है, किन्तु वे इन अवधारणाओं से सुपरिचित रहे हैं, इसमें शंका की कोई स्थिति नहीं है । इतना स्पष्ट है कि योगिन्दुदेव निश्चय दृष्टि से आत्मा में गुणस्थानों या मार्गणास्थानों को स्वीकार नहीं करते । यह तो स्पष्ट है कि गुणस्थान का सम्बन्ध कर्मो के क्षय-उपशम से है । अपने पक्ष के समर्थन में परमात्मप्रकाश में योगिन्दुदेव कहते हैं कि जिस प्रकार द्वितीय प्रकाश गाथा क्रमांक-१७८, रक्त वस्त्र को धारण करने से शरीर को रक्त नहीं कहा जा सकता है, उसी प्रकार देह आदि के वर्ण के आधार पर आत्मा को उस वर्ण का नहीं माना जा सकता है । अतः कर्मों के क्षय-उपशम आदि के निमित्त से उत्पन्न होनेवाली विभिन्न अवस्थाओं को आत्मा में घटित नहीं किया जा सकता है । गुणस्थान शुद्ध आत्मा की अवस्थाएं नहीं हैं । वे संसारी आत्मा की कर्म के निमित्त से होनेवाली अवस्थाएं हैं । इस प्रकार चाहे योगिन्दुदेव ने विस्तार से गुणस्थान की चर्चा नहीं की हो, फिर भी शुद्ध आत्मा में गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि के निषेध से यह तो स्पष्ट है कि वे इन अवधारणाओं से परिचित रहे हैं। उनका वैशिष्ट्य यही है कि वे गुणस्थान की अवधारणा को शुद्ध आत्मा के सम्बन्ध में स्वीकार नहीं करते हैं । वे गुणस्थान की सत्ता को मात्र व्यवहार के स्तर पर ही मानते हैं ।
नआचार्य हरिभद्र के प्रमुख ग्रन्थों में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन
आचार्य हरिभद्र जैन साहित्य जगत का एक प्रमुख नाम है । इनका सत्ताकाल लगभग आठवीं शती है। सामान्यतया यह माना जाता है कि उन्होंने १४४४ ग्रन्थों की रचना की थी। वर्तमान में वे सभी ग्रन्थ तो उपलब्ध नहीं है, फिर भी आगमों की टीकाओं के साथ-साथ आज भी अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं । इन ग्रन्थों में अष्टक, षोडशक, विंशिका, पंचाशक आदि प्रमुख ग्रन्थ
क प्रकरण में उन्होंने आठ-आठ संस्कत श्लोकों में षोडशक में सोलह-सोलह प्राकत गाथाओं में, विंशिका में बीस-बीस गाथाओं में, पंचाशक में पचास-पचास गाथाओं में विविध विषयों को प्रस्तुत किया है। इन सभी ग्रन्थों में हमें गुणस्थान सम्बन्धी किंचित् उल्लेख ही उपलब्ध होते हैं । आचार्य हरिभद्र गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा से ही अवश्य परिचित रहे है, किन्तु इसके प्रतिपादन में उन्होंने कोई विशेष रुचि नहीं ली है।
अष्टक प्रकरण में जैनधर्म से सम्बन्धित निम्न बत्तीस विषयों का विवरण है-(१) महादेवाष्टक (२) स्नानाष्टक (३) पूजाष्टक (४) अग्निकारिकाष्टक (५) भिक्षाष्टक (६) सर्वसम्पत्करी भिक्षाष्टक (७) प्रच्छन्नभोजनाष्टक (८) प्रत्याख्यानाष्टक (६) ज्ञानाष्टक (१०) वैराग्याष्टक (११) तपोऽष्टक (१२) वादाष्टक (१३) धर्मवादाष्टक (१४) एकान्तनित्यपक्षखण्डनाष्टक (१५) एकान्तानित्यपक्षखण्डनाष्टक (१६) नित्यानित्यपक्षमण्डनाष्टक (१७) मांसभक्षणदूषणाष्टक (१८) मांसभक्षणदूषणाष्टक (१६) मद्यपानदूषणाष्टक (२०) मैथुनदूषणाष्टक (२१) सूक्ष्मबुद्धयाश्रयणाष्टक (२२) भावविशुद्धि विचाराष्टक (२३) शासनमालिन्यनिषेधाष्टक (२४) पुण्यानुबन्धि पुण्यादि विवरणाष्टक (२५) पुण्यानुबन्धिपुण्यप्रधानफलाष्टक (२६) तीर्थकृतदानमहत्वसिद्धयष्टक (२७) तीर्थकृत्दाननिष्फलता परिहाराष्टक (२८) राज्यादिदानेऽपि-तीर्थकृतो-दोषाभाव-प्रतिपादनाष्टक
३७८ अष्टक प्रकरण; लेखक : हरिभद्रसूरिजी, सम्पादक : डॉ. सागरमल जैन, प्रकाशन : पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी-५ प्रथम संस्करण - २०००
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