________________
प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
षष्टम अध्याय........{411) (२६) सामायिक स्वरूपनिरूपणाष्टक (३०) केवलज्ञानाष्टक (३१) तीर्थंकरदेशनाष्टक और (३२) मोक्षाष्टक, किन्तु इनमें से एक भी अष्टक गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित नहीं है।
षोडशक में सोलह७६- सोलह गाथाओं में निम्न सोलह विषय प्रतिपादित किए गए हैं-(१) सद्धर्मपरीक्षक षोडशक (२) सद्धर्मदेशना षोडशक (३) धर्मलक्षण षोडशक (४) धर्मेच्छुलिंग षोडशक (५) लोकोत्तर तत्वप्राप्ति षोडशक (६) जिनभवन षोडशक (७) जिन बिंब षोडशक (८) प्रतिष्ठा षोडशक (E) पूजा षोडशक (१०) सदनुष्ठान षोडशक (११) ज्ञान षोडशक (१२) दीक्षा षोडशक (१३) साधुसच्चेष्टा षोडशक (१४) योगभेद षोडशक (१५) ध्यदृयस्वरूप षोडशक और (१६) समरस षोडशक, किन्तु इनमें किसी भी षोडशक में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कोई विवेचन उपलब्ध नहीं होता है।
इसी क्रम में आगे विंशतिविंशिकाः३८० का स्थान आता है । विंशिकाओं में बीस-बीस गाथाओं में निम्न बीस विषय वर्णित हैं-(१) अधिकार निर्देशविंशिका (२) अनादिविंशिका (३) कुलनीतिधर्मविशिका (४) चरमपुद्गलावर्तविंशिका (५) बीजादिविंशिका (६) सद्धर्मविंशिका (७) दानविंशिका (८) पूजाविंशिका (६) श्रावकधर्मविंशिका (१०) श्रावक प्रतिमा विंशिका (११) यतिधर्मविंशिका (१२) शिक्षाविंशिका (१३) भिक्षाविंशिका (१४) भिक्षाअन्तरायशुद्धिलिंगविंशिका (१५) आलोचनाविंशिका (१६) प्रायश्चितविंशिका (१७) योगविंशिका (१८) केवलज्ञानविंशिका (१६) सिद्धविभक्तिविंशिका और (२०) सिद्धिसुखविंशिका । इनमें गुणस्थान सम्बन्धी कुछ निर्देश उपलब्ध होते हैं ।
विशिकाओं में सद्धर्म नामक छठी विंशिका में यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण की चर्चा उपलब्ध होती है, किन्तु इस चर्चा का सीधा सम्बन्ध गुणस्थान से प्रतीत नहीं होता है । इसमें सम्पूर्ण चर्चा सम्यक्त्व की उपलब्धि को लेकर है । इसकी सत्रहवीं गाथा में निश्चय सम्यक्त्व की भी चर्चा है । अनुवादकों ने यहाँ सप्तम गुणस्थान ऐसा उल्लेख किया है, किन्तु मूल गाथा से यह बात फलित नहीं होती है। इसी क्रम में आगे उन्नीसवीं सिद्धविभक्ति विंशिका में सिद्धों के प्रकारों की चर्चा करते हुए इसकी सातवीं और आठवीं गाथा में स्पष्ट रूप से गुणस्थान सम्बन्धी निर्देश उपलब्ध हैं । इस विंशिका की सातवीं गाथा में स्त्री आदि में छठे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक की सम्भावना तथा एक समय में बीस स्त्रियों के एक साथ सिद्ध होने का आगमिक उल्लेख यह बताता है कि स्त्रीलिंग मुक्ति में प्रतिबन्धक नहीं है । पुनः क्षपकश्रेणी की चर्चा करते हुए यह कहा गया है कि क्षपकश्रेणी से जो जीव अनिवृत्तिबादर गुणस्थान में प्रवेश करता है, वह नियम से केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष को प्राप्त करता है। इस विंशिका में स्त्रीमुक्ति के समर्थन पर विशेष बल दिया गया है। इससे यह प्रतिफलित होता है कि आचार्य हरिभद्र गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा से गहन रूप से परिचित रहे हैं, क्योंकि इसी प्रसंग में उन्होंने किस गुणस्थान में किन कर्मप्रकृतियों का किनमें संक्रमण होता है, इसका विवेचन किया है।
__ पंचाशक प्रकरण आचार्य हरिभद्र की एक महत्वपूर्ण रचना है । इसमें लगभग ५०-५० गाथाओं के निम्न उनीस प्रकरण हैं - (१) श्रावक धर्मविधि पंचाशक (२) जिनदीक्षाविधि पंचाशक (३) चैत्यवंदनविधि पंचाशक (४) पूजाविधि पंचाशक (५) प्रत्याख्यानविधि पंचाशक (६) स्तवनविधि पंचाशक (७) जिनभवननिर्माणविधि पंचाशक (८) जिनबिंबप्रतिष्ठाविधि पंचाशक (E) यात्राविधि पंचाशक (१०) उपासकप्रतिमाविधि पंचाशक (११) साधुधर्मविधि पंचाशक (१२) साधुसमाचारीविधि पंचाशक (१३) पिण्डविधानविधि पंचाशक (१४) शीलांगविधानविधि पंचाशक (१५) आलोचनाविधि पंचाशक (१६) प्रायश्चितविधि पंचाशक (१७) कल्पविधि पंचाशक (१८) भिक्षुप्रतिमाकल्पविधि पंचाशक और (१६) तपविधि पंचाशक । मूलतः ग्रन्थ का विषय श्रावक और मुनिधर्म का तथा उनसे सम्बन्धित विविध क्रियाओं का विधान है । दूसरे शब्दों में यह एक साधनापरक ग्रन्थ है । यही कारण है कि इसमें गुणस्थानों की अवधारणा का स्पष्ट रूप से कोई उल्लेख नहीं मिलता है । वैसे भी आचार्य हरिभद्र के साहित्य में गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा अल्प ही है । प्रस्तुत कृति के चैत्यवन्दन विधि नामक प्रकरण में अपुनर्बन्धक, सम्यग्दृष्टि, देशविरति
और सर्वविरत- इन चार अवस्थाओं का तथा चतु र्थ पूजाविधि प्रकरण में प्रमत्तंसयत और अप्रमत्तंसयत- इन दो अवस्थाओं का, ऐसी गणस्थानों से सम्बन्धित छः अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है, किन्तु आचार्य हरिभद्र ने इन अवस्थाओं का जो नाम उल्लेख ३७६ षोडशक प्रकरण भाग-१-२, हरिभद्रसूरिजी, टीका सम्पादक : यशोविजयजी, प्रकाशन : अंधेरी गुजराती जैन संघ, वेस्ट मुंबई-५६, वि.सं. २०५२ ३८० विंशतिविंशिका : लेखक : हरिभद्रसूरिजी, सम्पादक : धर्मरक्षित विजय, प्रकाशक : लावण्य जैन श्वे. मूर्तिपूजक संघ, अमदाबाद (गुज.) ३१ षोडशकप्रकरण भाग-१-२, लेखक :हरिभद्रसूरिजी, टीका : यशोविजजी, प्रकाशक : अंधेरी गुजराती जैन संघ, वेस्ट मुंबई-५६
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org