________________
प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.......
में सम्भव मानी जा सकती है ।
(४) जागृत स्वप्न - जागते हुए भी भ्रम से ग्रसित रहना जागृतस्वप्न है। ४५१ यह मनोकल्पना की अवस्था है । इसे आधुनिक मनोविज्ञान में दिवास्वप्न की अवस्था कहते हैं ।
(५) स्वप्न - निद्रा अवस्था में आए हुए स्वप्न का जागने के पश्चात् भी भान होना, अनुभव करना स्वप्नावस्था है । ४५२ (६) स्वप्नजागृत- जागने पर भी लम्बे काल तक स्वप्न के स्थायित्व की कल्पना में डूबे रहना, उसे सत्य मानना स्वप्नजागृत है । ४५३ वर्षों तक प्रारम्भ रहे स्वप्न का इसमें समावेश होता है। शरीरपात हो जाने पर भी यह चलता रहता है ।
(७) सुषुप्तक - जिसमें प्रगाढ़ अज्ञान के कारण जीव की जड़ जैसी स्थिति हो जाती है, उसे सुषुप्तक कहते हैं । ४५४
अज्ञान की उपर्युक्त सात अवस्थाओं में से सुषुप्ति के बिना छः अवस्थाएँ कर्म फल की भोग भूमि रूप होने से कर्मज है । सुषुप्ति अवस्था तो उद्धृत कर्मो का योग से क्षय होने पर, दूसरे कर्मों का अनुदय होने पर और मध्यकाल में भोग्य सकल स्थूलसूक्ष्म प्रपंच के विलीन हो जाने पर प्रपंच के बीज अज्ञान मात्र के शेष रहने से अज्ञानोपहित चैतन्य शेष रूप ही है, जो जीव की जड़ावस्था है। इस प्रकार की जड़ावस्था का ही अपरनाम सुषुप्ति है।
अज्ञान की सात भूमिकाओं के पश्चात् अब ज्ञान की सात भूमिकाओं का स्वरूप बतलाया है -
(८) शुभेच्छा - आत्म अवलोकन की वैराग्य युक्त इच्छा को शुभेच्छा कहते हैं । ४५५ यह कल्याण की कामना है । (६) विचारणा - शास्त्राभ्यास, गुरुजनों के संसर्ग तथा वैराग्य और अभ्यासपूर्वक प्रवृत्ति विचारणा कहलाती है । ४५६ (१०) तनुमानसा - शुभेच्छा और विचारणा के कारण इन्द्रिय विषयों में अवसक्तता रूप जो तनुता (सविकल्प समाधिरूप सूक्ष्मता ) होती है, वह तनुमानसा नामक भूमिका है । ४५७ यह इच्छाओं और वासनाओं के क्षीण होने की अवस्था है ।
(११) सत्वापत्ति - शुभेच्छा विचारणा और तनुमानसा इन तीनों भूमिकाओं के अभ्यास से बाह्य विषयों में संस्कार न रहने के कारण चित्त में अत्यन्त विरक्ति होने से शुद्ध आत्म स्वरूप में स्थित यानि निर्विकल्प समाधिरूप जो स्थिति है, वह सत्वा है ४८
(१२) असंसक्ति - पूर्वोक्त चार ज्ञान भूमिकाओं के अभ्यास से बाह्य और आभ्यन्तर विषयविकारों के सम्बन्ध नष्ट हो जाने से चित्त में निरातिशय आनन्द की अनुभूति होती है, यही असंसक्ति है ।
(१३) पदार्थ भाविनी - पूर्वोक्त पांच भूमिकाओं के अभ्यास से बाह्य और आभ्यन्तर सभी पर पदार्थों से इच्छाओं के नष्ट हो जाने पर आत्मस्वरूप में जो दृढ़ स्थिति होती है, उसे पदार्थभाविनी अवस्था कहते है ।
(१४) तुर्यगा- पूर्वोक्त छः भूमिकाओं के चिरकालीन अभ्यास से आत्मा का पर-पदार्थों से भेद ज्ञान हो जाने पर एकमात्र स्वभाव में स्थिर हो जाना तुर्यगा अवस्था है । यह जीवन्मुक्त जैसी अवस्था है । तत्पश्चात् विदेहमुक्त तुर्यातीत स्थिति है । ४५६
अज्ञान की भूमिकाओं में उत्तरोत्तर अज्ञान का प्राबल्य होने से उन्हें अविकासकाल और ज्ञान की भूमिकाओं में क्रमशः ज्ञानविकास में वृद्धि होने से उन्हें विकासक्रम की श्रेणियाँ कह सकते हैं । ज्ञान की सातवीं भूमिका तुर्यगा में विकास पूर्णता को प्राप्त करता है और उसके बाद की स्थिति मोक्ष है । आध्यात्मिक विकास की पूर्णता को प्राप्त स्थिति को जैन परम्परा में अरिहंत और उसके बाद की तुर्यातीत स्थिति को सिद्धदशा कहा गया है ।
४५१ यज्जोगृती मनोराज्यं, जागृत स्वप्न स उच्यते । ४५२ वही २०
४५३ वही २१, २२
४५४.......जड़ा जीवस्य या स्थिति । भविष्यद् दुःखबोधाढ्या सौषुप्ती सोच्यते गतिः ।। योगवसिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग ११७/२२, २३
४५५ वैराग्यपूर्वमिच्छेति शुभेच्छेत्युच्यते बुधैः । ४५६ वही ६
४५७ विचारणा शुभेच्छाभ्यामिन्द्रियार्थे ऽ वसक्तता । याऽत्र सा तनुता भावात् प्रोच्यते तनुमानसा ।।
४५८ वही ११
४५६ वही १५, १६
अष्टम अध्याय.....{447}
योगवसिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग ११७ / १२
Jain Education International
योगवसिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग ११८/८
वही १०
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org