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प्राकत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
अष्टम अध्याय........{446} जैन शास्त्रों में मुख्यतः मोह को ही बन्ध का कारण माना है, वैसे ही योगवसिष्ठ ४१ में भी अलग ढंग से वही बात कही गई है । जैन ग्रन्थों में जैसे ग्रंथिभेद का वर्णन है, वैसे ही ग्रंथिभेद का वर्णन योगवसिष्ठ४४२ में भी है। जैन शास्त्रों में सम्यग्दृष्टि का सम्यग्ज्ञान और मिथ्यादृष्टि का मिथ्याज्ञान लक्षण माना गया है, वैसे ही योगवसिष्ठ में स्वरूप स्थिति को ज्ञानी का और स्वरूपभ्रंश को अज्ञानी माना गया है।४४३
योगवसिष्ठ में सम्यग्ज्ञान का जो लक्षण बताया गया है,४४४ वह जैन शास्त्रों के समान है। जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति निसर्ग और अधिगम - इन दो प्रकारों से बताई गई है, उसी तरह योगवसिष्ठ में भी ज्ञान प्राप्ति का वैसा ही क्रम सूचित किया गया है । इस प्रकार से जैनदर्शन के अन्य विचारों के अनुरूप और दूसरे विचार भी योगवसिष्ठ में उल्लेखित हैं, जो तुलनात्मक दृष्टि से मननीय हैं।
__ जैनदर्शन में आत्मविकास के क्रम को बतलाने के लिए जैसे १४ गुणस्थान माने गए हैं, वैसे ही योगवसिष्ठ में भी चौदह भूमिकाओं का बड़ा रुचिकर वर्णन है । उनमें सात अज्ञान और सात ज्ञान की भूमिकाएँ हैं,४४५ जो जैन परिभाषा के अनुसार क्रमशः मिथ्यात्व की और सम्यक्त्व की सूचक है । अज्ञान और ज्ञान की सात-सात भूमिकाओं के नाम इस प्रकार हैं -
अज्ञान की सात भूमिकाएँ - बीजजागृत, जागृत, महाजागृत, जागृतस्वप्न, स्वप्न, स्वप्नजागृत और सुषुप्तक ।४४६ ज्ञान की सात भूमिकाएँ - शुभेच्छा, विचारणा, तनुमानसा, सत्वापत्ति, असंसक्ति, परार्थाभामिनी और तर्यागा५४७। इस प्रकार जैन परम्परा के चौदह गुणस्थानों के समान ही योगवसिष्ठ में आध्यात्मिक विकास की चौदह सीढ़ियाँ मानी गई
(१) बीजजागृत - जागरण आदि के माथावरा चैतन्य से प्राणधारण आदि क्रिया रूप उपाधि से भविष्य में होने वाले चित्त, जीव आदि शब्दों और उनके अर्थों के भाजनरूप तथा जागृति की बीजभूत जो प्रथम चेतन दशा है, उसे बीजजागृत कहते हैं,४४८ अर्थात् इस भूमिका में जागृति की योग्यता बीजरूप में होती है। यह अवस्था वनस्पति निकाय आदि के जीवों को होती है।
(२) जागृत - बीजजागृति के बाद 'मैं और मेरा' (अहं और मम) ऐसी जो प्रतीती होती हैं, उसे जागृत कहते हैं४४६ अर्थात् इसमें अहंकार और ममत्व वृद्धि अल्प मात्रा में जागृत होने से इस अवस्था को जागृत भूमि कहा गया है । यह चेतना की प्रसुप्त अवस्था है । यह अवस्था कीड़े-मकोड़े, पशु-पक्षी आदि की होती है।
(३) महाजागृत - ऐहिक या जन्मान्तरीय दृढ़ाभ्यास से दृढ़ता को प्राप्त जागृत प्रत्यय महाजागृत है।४५० इसमें ममत्व बुद्धि विशेष रूप से पुष्ट होने के कारण इसे महाजागृत कहते हैं। यह आत्मचेतना की अवस्था है । यह भूमिका देव और मानवसमूह
योगवसिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग १/२०
योगवसिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग ११८/२३
योगवसिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग ११७/५
योगवसिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग ७६/२
४४१ अविधा संसृतिर्बन्धो, माया मोहो महत्तमः । कल्पिता नीति नामानि, यस्या सकलवदिभिः ।। ४४२ ज्ञप्तिर्हि ग्रंथिविच्छेदस्तस्मिन् सति हि मुक्तता।
मृगतृष्णा बुद्धयादि, शान्तिमात्रात्मकस्त्वयौ ।। ४४३ स्वरूपास्थितिमुक्तिस्तद् ग्रंशोऽहत्व वेदनम् ।
एतत् संक्षेपतः प्रोक्तं तज्ज्ञत्वात्ज्ञत्व लक्षणम् ।। ४४४ अनाद्यनन्तावभासात्मा, परमात्मेह विद्यते। .
इत्येको निश्चयः स्फारः, सम्यग्ज्ञानं विदुर्बुधाः ।। ४४५ अज्ञान भूः सप्तसदा, ज्ञभूः सप्तदैव हि ।
पदान्तराण्यसंख्यानि भवन्त्ययान्य चैतयोः ।। ४४६ बीज जागृत्तया जागृन्महाजागृत तथैव च ।
जागृतस्वप्नस्तया स्वप्नः, स्वप्नजागृत्सुषुप्तकम् ।।
इति सप्तविधो मोहः पुनरेव परस्परम् ।। ४४७ योगवसिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग ११८/५,६ ४४८ भविष्यच्चित्त जीवादि, नामशब्दार्थभाजनम् ।
बीजरूपं स्थितं जागृद्, बीजजागृतदुच्यते ।। ४४६ योगवसिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग ११७/१५, १६ ४५० अयं सो एहमिदं तन्मम, इति जन्मान्तरोदितः ।
पीवारः प्रत्ययः प्रोक्तो महाजागृतदिति स्फुरन् ।।
योगवसिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग ११७/२
योगवसिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग ११७/११, १२
योगवसिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग ११७/१४
योगवसिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग ११७/१६, १७
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