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अध्याय 8 |
गुणस्थान की अवधारणा : एक तुलनात्मक विवेचन
योगवसिष्ठ की चौदह भमिकाएँ और चौदह गणस्थान
पं.सुखलालजी, डॉ.सागरमल जैन, आचार्य जयन्तसेनसरिजी आदि ने योगवसिष्ठ की १४ भूमिकाओं की १४ गुणस्थानों से तुलना की है । सभी भारतीय धर्मों एवं दर्शनों को आध्यात्मिक विकास इष्ट एवं अभिप्रेत है । वैदिक दर्शन भी प्रायः आस्तिकवादी है, अतः जैनदर्शन की तरह वैदिक परम्परा में भी आत्म विकास के सम्बन्ध में विचार किया गया है । विशेषतया योगवसिष्ठ, पांतजल योग आदि ग्रन्थों में आत्मा के विकास की भूमिकाओं के विषय में कुछ अधिक वर्णन किया गया है। वर्णनशैली की भिन्नता होने पर भी आध्यात्मिक विकास प्रयोजनभूत दृष्टि की अपेक्षा से अल्प भेद है।
जैन ग्रन्थों में मिथ्यादृष्टि या बहिरात्मा के नाम से अज्ञानी जीव का लक्षण बतलाया है कि अनात्म जड़ तत्व में जो आत्मबुद्धि करता है, वह मिथ्यादृष्टि या बहिरात्मा है४३५। योगवसिष्ठ०३६ तथा पांतजल योगसूत्र ३७ में भी अज्ञानी जीव का यही लक्षण है । जैसे जैन ग्रन्थों में मिथ्यात्वमोह का संसार वृद्धि और दुःख रूप फल वर्णित है,४३८ वैसे ही वही बात योगवसिष्ठ०३६ में अज्ञान के फल के रूप में कही गई है । योगवसिष्ठ में अविद्या से तृष्णा और तृष्णा से दुःख का अनुभव तथा विद्या से अविद्या का नाश४४० जो क्रम वर्णित है, वैसा ही क्रम जैन शास्त्रों में मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञान के निरूपण द्वारा यथाप्रसंग वर्णित किया गया है । योगवसिष्ठ में जो अविद्या का विद्या से और विद्या का निर्विकल्पदशा से नाश बताया गया है, यह बात जैन शास्त्रों में माने हुए मतिज्ञान आदि क्षायोपशमिक ज्ञान से मिथ्याज्ञान के नाश और क्षायिकज्ञान से क्षायोपशमिक ज्ञान के नाश के समान है।
४३५ आत्मधिया समुपातकायादिः कीर्त्यतेऽत्र बहिरात्मा - योगशास्त्र प्रकारा-१२ ४३६ यस्याज्ञानात्मनो ज्ञस्य, देह एवात्मभावना ।
उदितेति रूषैवाक्षरिपवोउमि एवात्मभावना ।। योगवसिष्ठ निर्वाण प्रकरण पूर्वार्ध सर्ग ६ ४३७ (क) अनित्याशुचि दुःखनात्मसु नित्यशुचि - सुखात्मख्यातिरविद्या पातंजल योगदर्शन साधना पादसूत्र ५
(ख) अविद्या मोह अनात्मन्यात्मरभिमान इति पातंजल योगदर्शन भोजदेव वृत्ति पृष्ठ १४१ ४३८ विकल्प चषकैरात्मा, पीतमोहासवो स्यम् ।
भवोच्च तालमुत्ताल, प्रपंचमधितिष्ठति ।। ज्ञानसार, मोहाष्टक-५ ४३६ अज्ञानात्प्रसूता यस्मात् जगत्पर्ण परम्परा ।
यस्मिस्तिष्ठन्ति राजते विशन्ति विलसन्ति च ।। योगवसिष्ठ निर्वाण प्रकरण सर्ग ६/५३ ४४० जन्म पर्णादिना रन्धा, विनाशच्छिद्र चन्चुका।
भोगा भोगरस्ता पूर्णा, विचारैक घुणक्षता ।। योगवसिष्ठ निर्वाण प्रकरण सर्ग /११
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