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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{382} सप्ततिका नामक षष्ठ कर्मग्रन्थ में गाथा क्रमांक ६५ से ७४ तक विभिन्न गुणस्थानों में कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध, उदय और सत्ता होती है, इसकी चर्चा की गई है, किन्तु यह चर्चा पंचसंग्रह के प्रथम खण्ड में तथा देवेद्रसूरि रचित कर्मस्तव नामक द्वितीय कर्मग्रन्थ में भी उपलब्ध होती है । हमने पंचसंग्रह के विवचेन में इसका विस्तार से उल्लेख किया है । यहाँ उनकी पुनः चर्चा करना पिष्ट-पेषण ही होगा। ____सप्ततिका नामक षष्ठम कर्मग्रन्थ के अन्त में उपशमश्रेणी और क्षपक श्रेणी का विवेचन उपलब्ध होता है । उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी आठवें गुणस्थान से प्रारम्भ होकर क्रमशः ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में पूर्ण होती है, अतः इन दोनों श्रेणियों की चर्चा गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित है, किन्तु यह चर्चा शतक नामक पंचम कर्मग्रन्थ में भी उपलब्ध होती है । यद्यपि पंचम कर्मग्रन्थ की अपेक्षा षष्ठम कर्मग्रन्थ में इसे किंचित् विस्तृत रूप से प्रस्तुत किया गया है । हमने इसके विस्तार को समाहित करते हुए पंचम कर्मग्रन्थ में ही इन दोनों श्रेणियों की चर्चा की है । अतः यहाँ पुनः इन दोनों श्रेणियों का विवेचन करना पिष्ट-पेषण होगा। इसीलिए यहाँ हम उन दोनों श्रेणियों की चर्चा न करते हुए षष्ठम कर्मग्रन्थ में गुणस्थान सम्बन्धी जो विवेचन उपलब्ध है, उसे विराम देते हैं । इसप्रकार छः कर्मग्रन्थों में उपलब्ध गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन पूर्ण होता है । दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह और गुणस्थान सिद्धान्त श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में पंचसंग्रह नाम के चार ग्रन्थ पाए जाते हैं। यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा में प्राकृत भाषा में रचित एक ही पंचसंग्रह की जानकारी हमें उपलब्ध है, किन्तु दिगम्बर परम्परा में पंचसंग्रह के नाम से तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते है -प्राकृत पंचसंग्रह, अमितगतिकृत संस्कृत पंचसंग्रह और श्री पालसुत ढड्डा कृत संस्कृत पंचसंग्रह। इनमें प्राचीन तो प्राकृत पंचसंग्रह ही है, जो श्वेताम्बर पंचसंग्रह से बहुत कुछ रूप में मेल खाता है । श्वेताम्बर परम्परा के पंचसंग्रह के कर्ता के रूप में चन्द्रर्षि महत्तर का उल्लेख है, किन्तु दिगम्बर परम्परा के इस प्राकृत पंचसंग्रह के कर्ता के रूप में किसी व्यक्ति का उल्लेख नहीं मिलता है । दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह में निम्न पांच विभाग हैं- (१) जीवसमास, (२) प्रकृति समुत्कीर्तन, (३) बन्धस्तव, (४) शतक और (५) सप्ततिका, जबकि श्वेताम्बर पंचसंग्रह में निम्न पांच प्रकरण ग्रन्थ समाहित है -(१) शतक, (२) कर्मप्रामृत, (३) कर्मप्रकृति, (४) कषायप्राभृत और (५) सप्ततिका । मूलतः दोनों ही परम्पराओं के पंचसंग्रहों का विषय कर्मसिद्धान्त ही है। इनमें कर्मप्रकृति के प्रकारों, उनके बन्धहेतुओं आदि का विस्तृत विवेचन है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं के पंचसंग्रहों में कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी विवेचन में यथाप्रसंग गुणस्थानों की चर्चा भी हुई है । दिगम्बर परम्परा का प्राकृत पंचसंग्रह और श्वेताम्बर परम्परा का चन्द्रर्षि महत्तरकत पंचसंग्रह प्राकत पद्यों में रचित है। इन दोनों में ही गणस्थान सिद्धान्त का विकसित स्वरूप परिलक्षित होता है । साथ ही दोनों पंचसंग्रहों में अनेक गाथाएं समान रूप से परिलक्षित होती है । यद्यपि दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह और श्वेताम्बर पंचसंग्रह में कौन प्राचीन है, इस प्रश्न को लेकर पंडित हीरालाल जैन ने दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह की भूमिका में विस्तार से चर्चा की है और यह बताने का प्रयास किया है कि दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह, श्वेताम्बर पंचसंग्रह की अपेक्षा प्राचीन है,३२६ किन्तु यदि हम गाथाओं की समरूपता, विषय की समरूपता, गुणस्थान सिद्धान्त का विकसित स्वरूप आदि की दृष्टि से विचार करें, तो दोनों ही समकालीन प्रतीत होते हैं। गुणस्थान सिद्धान्त का जो विकसित स्वरूप हमें इन ग्रन्थों में उपलब्ध होता है, उसके आधार पर विद्वानों ने इनका काल छठी-सातवीं शताब्दी माना है। दोनों में जो गाथाओं की समरूपता है, उसे देखकर ३३६ दि.पंचसंग्रह प्रांत, प्रस्तावना पृ.१४, २३ लेखक : अमितगति, सम्पादक पं. हीरालाल जैन, डॉ. आदिनाथ, नेमिनाथ प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, दुर्गाकुण्ड रोड़, वाराणसी Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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