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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{130} सागरोपम और कुछ कम दो हजार सागरोपम है । त्रसकाय और त्रसकाय पर्याप्त अपूर्वकरण से लेकर उपशान्तकषाय चारों उपशमकों में चारों गुणस्थानों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है । एक जीव की अपेक्षा उपर्युक्त चारों उपशमकों में इन चारों का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा त्रसकाय जीवों में, उन उपशमकों में, इन चारों गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिवर्षपृथक्त्व से अधिक दो हजार सागरोपम तथा त्रसकाय पर्याप्तों में इन्हीं का उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो हजार सागरोपम है। त्रसकाय और त्रसकाय पर्याप्त जीवों में चारों क्षपक और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है । त्रसकाय और त्रसकाय पर्याप्तों में सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का अन्तरकाल, सामान्य से जैसा कहा गया है, वैसा ही है। त्रसकाय लब्धि अपर्याप्तों में इस काय का अन्तरकाल पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्तों के समान है, यह अन्तर काल की अपेक्षा है। इस गुणस्थान की अपेक्षा से दोनों ही प्रकार से अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं। योगमार्गणा में पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी और औदारिक काययोगियों में मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर है। उपर्युक्त योगवाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का जघन्य अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा एक समय है । एक जीव की अपेक्षा उपर्युक्त योगवाले द्वितीय और तृतीय गुणस्थानवी जीवों में इन दोनों गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है । एक जीव की अपेक्षा उपर्युक्त योगवाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इनका अन्तर नहीं है, वे निरन्तर हैं । उपर्युक्त योगवाले चारों उपशमकों में इन गुणस्थानों का सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है । एक जीव की अपेक्षा इन गुणस्थानों का अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर है । उपर्युक्त योगवाले चारों क्षपकों में इन चारों गुणस्थानों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कथित है, वैसा ही है । औदारिकमिश्रकाययोगियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा नहीं है, वे निरन्तर हैं । औदारिकमिश्रकाययोगी सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इन दोनों गुणस्थानों का सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वह निरन्तर हैं। एक जीव की अपेक्षा भी इसका अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय है । सभी जीवों की अपेक्षा औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इसका उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व परिमाण है । एक जीव की अपेक्षा औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का अन्तरकाल नहीं है, वह निरन्तर हैं । औदारिकमिश्रकाययोगी सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का जघन्य अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा एक समय है । विशेष यह है कि कषाय समुद्घात से रहित केवलियों का कम से कम एक समय के लिए अभाव पाया जाता है । सभी जीवों की अपेक्षा औदारिकमिश्रकाययोगी केवलियों का उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व परिमाण है । एक जीव की अपेक्षा औदारिकमिश्रकाययोगी केवली जिन इस गुणस्थान का अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं। वैक्रियकाययोगियों में आदि के चारों गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल मनोयोगियों के समान है । वैक्रियमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में मिथ्यात्व गुणस्थान का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय है । सभी जीवों की अपेक्षा वैक्रियमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में मिथ्यात्व गुणस्थान का उत्कृष्ट अन्तरकाल बारह मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा वैक्रियमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का अन्तरकाल नहीं है, यह निरन्तर है । वैक्रियमिश्रकाययोगी सास्वादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इन दोनों गुणस्थानों का अन्तरकाल औदारिकमिश्रकाययोगियों के समान है । आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का जघन्य अन्तरकाल, सभी जीवों की अपेक्षा, एक समय है, सभी जीवों की अपेक्षा इसका उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व परिमाण है । एक जीव की अपेक्षा Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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