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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{131} आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियों में प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं। कार्मणकाययोगियों में मिथ्यादृष्टि, सास्वादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में इन तीनों गुणस्थानों का अन्तरकाल औदारिकमिश्रकाययोगियों के समान हैं । वेदमार्गणा में स्त्रीवेदियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में मिथ्यात्व गुणस्थान का, सभी जीवों की अपेक्षा, अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में मिथ्यात्व का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में मिथ्यात्व गुणस्थान का उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पचपन पल्योपम है । स्त्रीवेदी सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल, सभी जीवों की अपेक्षा जैसा सामान्य से कथन किया है, वैसा ही है। एक जीव की अपेक्षा स्त्रीवेदी सास्वादनसम्यग्दृष्टि जीवों में इस गुणस्थान का जघन्य अन्तरकाल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इसका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा स्त्रीवेदी सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों में इन गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपम शतपृथक्त्व है । असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती स्त्रीवेदियों में इन चारों गुणस्थानों का, सभी जीवों की अपेक्षा, अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा चौथे से लेकर सातवें गुणस्थानवर्ती स्त्रीवेदियों में इन गुणस्थानों का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा उपर्युक्त चार गुणस्थानवर्ती स्त्रीवेदी जीवों में इन चारों गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपम शतपृथक्त्व है । अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण-इन दो गुणस्थानवर्ती स्त्रीवेदी उपशमकों में इन दोनों गुणस्थानों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कथित है, वैसा ही है। एक जीव की अपेक्षा उनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपम शतपृथक्त्व है । स्त्रीवेदी अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणवर्ती इन दो क्षपकों में इन दोनों गुणस्थानों का जघन्य अन्तरकाल, सभी जीवों की अपेक्षा एक समय है। सभी जीवों की अपेक्षा उपर्युक्त स्त्रीवेदवाले अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती क्षपकों में इनका उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । एक जीव की अपेक्षा आठवें और नवें गुणस्थानवर्ती स्त्रीवेदवाले क्षपकों में इनका अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं। दसवें गुणस्थान में वेद का अभाव है । पुरुषवेदवालों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है। पुरुषवेदवाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल, सभी जीवों की अपेक्षा, जघन्य से एक समय और उत्कृष्टतः पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है । एक जीव की अपेक्षा पुरुषवेदवाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का जघन्य अन्तरकाल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग तथा सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल सागरोपम शतपृथक्त्व है । असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक पुरुषवेदवाले जीवों में इन गुणस्थान का अन्तरकाल, सभी जीवों की अपेक्षा नहीं है, ये निरन्तर रहते हैं। एक जीव की अपेक्षा उपर्युक्त चारों गुणस्थानवर्ती पुरुषवेदवाले जीवों में इन गुणस्थानों का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा असंयतादि चारों गुणस्थानवर्ती पुरुषवेदवालों में इन गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल सागरोपम शतपृथक्त्व है। पुरुषवेदवाले अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती इन दो उपशमकों में इन दोनों गुणस्थानों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है, किन्तु एक जीव की अपेक्षा उनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उन्हीं का उत्कृष्ट अन्तरकाल सागरोपम शतपृथक्त्व है । पुरुषवेदवाले अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती इन दो क्षपकों में इन दोनों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः अन्तरकाल साधिक एक वर्ष है । एक जीव की अपेक्षा पुरुषवेदवाले दोनों क्षपकों में इनका अन्तर नहीं है, वे निरन्तर हैं । नपुंसकवेदवालों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का सभी जीवों की अपेक्षा से अन्तर नहीं है। एक जीव की अपेक्षा नपुंसकवेदवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में मिथ्यात्व गुणस्थान का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेंतीस सागरोपम है। सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक नपुंसकवेदवाले Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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