SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय.......{132} उपशमक जीवों में इन-इन गुणस्थानों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है । नपुंसकवेदवाले क्षपकों में अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण का जघन्य अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है। एक जीव की अपेक्षा नपुंसकवेदवाले अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती क्षपकों में इनका अन्तर नहीं हैं, वे निरन्तर हैं । अपगतवेदवालों में अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती उपशमकों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । एक जीव की अपेक्षा नवें और दसवें गुणस्थानवर्ती उपशमकों में इन गुणस्थानों का जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त ही है । अपगतवेदवाले उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवर्ती जीवों में, सभी जीवों की अपेक्षा, इसका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । एक जीव की अपेक्षा उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों में अन्तरकाल नहीं होता है, वे निरन्तर हैं । अपगत वेद वालों में अनिवृत्तिकरण-क्षपक, सूक्ष्मसंपरायक्षपक, क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल जो सामान्य से कथित है, वैसा ही है । अपगतवेदवाले सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल भी जैसा सामान्य से बताया गया है, वैसा ही है। __कषायमार्गणा में क्रोधकषाय, मानकषाय, मायाकषाय, और लोभकषायवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती उपशमक और क्षपक तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल मनोयोगियों के समान है । अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । एक जीव की अपेक्षा अकषायवाले जीवों में, उपशान्त कषाय वीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों में, इस गुणस्थान का अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । अकषायवाले जीवों में क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कथन किया गया है, वैसा ही है। ज्ञानमार्गणा में मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंगज्ञानवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । तीनों अज्ञानवाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में अन्तरकाल, सभी जीवों की अपेक्षा जैसा सामान्य से बताया गया है, वैसा ही है । आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञानवाले जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटि परिमाण है । उन तीनों ज्ञानवाले संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों के अन्तरकाल में सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है, वह निरन्तर है । एक जीव की अपेक्षा तीनों ज्ञान वाले संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा तीनों ज्ञान वाले संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का अन्तरकाल साधिक छासठ सागरोपम परिमाण है। उपर्युक्त तीनों ज्ञानवाले प्रमत्त और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा से नहीं है, वे निरन्तर होते हैं । एक जीव की अपेक्षा तीनों ज्ञान वाले प्रमत्त और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों का इन दोनों गुणस्थानों में जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा तीनों ज्ञानवाले प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीवों में इन दोनों गुणस्थान का उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेंतीस सागरोपम है । तीनों ज्ञान वाले चारों उपशमकों का अन्तरकाल, सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कृष्टतः वर्षपृथक्त्व है । एक जीव की अपेक्षा तीनों ज्ञानवाले में चारों उपशमकों का जघन्य अन्तरकार र उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक छासठ सागरोपम है। तीनों ज्ञानवाले चारों क्षपकों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से बताया गया है, वैसा ही है । विशेषता यह है कि सभी जीवों की अपेक्षा, अवधिज्ञानियों में चारों क्षपकों अर्थात् आठवें, नवें, दसवें और बारहवें गुणस्थानवी जीवों का अन्तर वर्षपृथक्त्व है । मनः पर्यवज्ञानियों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा नहीं है, वे निरन्तर हैं। एक जीव की अपेक्षा मनः पर्यवज्ञानवाले प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों का जघन्य अन्तरकाल तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त ही है। मनः पर्यवज्ञानवाले चारों उपशमकों का जघन्य अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा, एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । एक जीव की अपेक्षा मनः पर्यवज्ञानवाले चारों उपशमकों का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy