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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{133} उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष है । मनः पर्यवज्ञानवाले चारों क्षपकों का जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । एक जीव की अपेक्षा मनः पर्यवज्ञानवाले चारों क्षपकों में चारों गुणस्थानों का अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । केवलज्ञानवाले जीवों में सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कथित है, वैसा ही है । केवलज्ञानवाले अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से बताया गया है, वैसा ही है। संयममार्गणा में संयतों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर उपशान्त कषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक के गुणस्थानवर्ती संयतों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल मनःपर्यवज्ञानियों के समान है । संयतो में चारों क्षपक और अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों में इनका अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कथन किया गया है, वैसा ही है। संयतों में सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती संयतो का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से बताया है, वैसा ही है । सामायिक और छेदोपस्थापनीय शुद्धि संयतो में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती संयतों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा नहीं है, वे निरन्तर हैं। एक जीव की अपेक्षा उन्हीं का जघन्य अन्तरकाल है तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त ही है । सामायिक और छेदोपस्थापनीय शुद्धि संयतो में अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण-इन दोनों गुणस्थानवर्ती उपशमकों का जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । एक जीव की अपेक्षा सामायिक और छेदोपस्थापनीय शुद्धि संयतों में दोनों उपशमकों का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटि परिमाण है । सामायिक और छेदोपस्थापनीय शुद्धि संयतों में अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण-इ दोनों गुणस्थानवर्ती क्षपकों का अन्तरकाल जैसा सामान्य से बताया गया है, वैसा ही है । परिहारविशुद्धि स अप्रमत्तसंयत गणस्थानवर्ती संयतों का सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा उनका जघन्य अन्तरकाल और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त ही है । सूक्ष्मसंपराय शुद्धि संयतों में सूक्ष्मसंपरायिक उपशमकों का सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरक न वर्षपृथक्त्व है । एक जीव की अपेक्षा उनका अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं। सूक्ष्मसंपराय शुद्धि संयतों में क्षपकों में इस गुणस्थान का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है । यथाख्यातपरिहारविशुद्धि संयतों में, चारों गुणस्थानवी जीवों में, इन चारों गुणस्थानों का अन्तरकाल अकषायवाले जीवों के समान है । संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल, सभी जीवों की अपेक्षा नहीं है, वे निरन्तर हैं। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा नहीं है, वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थावर्ती जीवों का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा उन्हीं जीवों का उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेंतीस सागरोपम है । असंयतों में सास्वादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यगदृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कथित है, वैसा ही है। दर्शनमार्गणा में चक्षुदर्शनी जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से बताया गया है, वैसा ही है । चक्षुदर्शनवाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थावर्ती जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल, सभी जीवों की अपेक्षा जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है । एक जीव की अपेक्षा उनका जघन्य अन्तरकाल क्रमशः पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है । उन्हीं का उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो हजार सागरोपम है । असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के गुणस्थानवर्ती चक्षुदर्शनवाले जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा नहीं है, वे निरन्तर हैं। एक जीव की अपेक्षा उनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो हजार सागरोपम है । चक्षुदर्शनवाले चारों उपशमकों में चारों गुणस्थानों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है । एक जीव की अपेक्षा उनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो हजार सागरोपम है । चक्षुदर्शनवाले चारों क्षपकों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है । अचक्षुदर्शनवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थावर्ती जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कथन किया गया है, वैसा ही है । अवधिदर्शनवाले जीवों का अन्तरकाल अवधिज्ञानियों के समान है । केवलदर्शनवाले जीवों का अन्तरकाल केवलज्ञानियों के समान है। Jain Education Interational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jali www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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