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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{129) सभी जीवों की अपेक्षा से एक समय है । सभी जीवों की अपेक्षा द्वितीय और तृतीय गुणस्थानवर्ती पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में इन गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है। एक जीव की अपेक्षा दूसरे और तीसरे गुणस्थानवर्ती पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में इन दोनों गुणस्थानों का जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा दूसरे और तीसरे गुणस्थानवर्ती पंचेन्द्रियों में इन गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तर, पूर्वकोटिवर्षपृथक्त्व से अधिक, एक हजार सागरोपम तथा पंचेन्द्रिय पर्याप्तों का उत्कृष्ट अन्तरकाल सागरोपम शतपृथक्त्व है। असयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येक गुणस्थावर्ती पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में इन तीनों गुणस्थानों का सभी जीवों की अपेक्षा से अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर रहते हैं। एक जीव की अपेक्षा उपर्युक्त गुणस्थानवर्ती पंचेन्द्रिय जीवों में इन गुणस्थानों का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा इन चारों गुणस्थानवर्ती पंचेन्द्रिय जीवों में इन चारों गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिवर्षपृथक्त्व से अधिक हजार सागरोपम तथा पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों का उत्कृष्ट अन्तरकाल शतपृथक्त्व सागरोपम है। सभी जीवों की अपेक्षा पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में चारों उपशमक गुणस्थानों का अन्तरकाल जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है। एक जीव की अपेक्षा इन्हीं चारों गुणस्थानवर्ती उपशमकों में इनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त हैं। एक जीव की अपेक्षा पंचेन्द्रियों में चारों उपशमकों में इन चारों गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तर काल पूर्वकोटिवर्षपृथक्त्व से अधिक हजार सागरोपम और पंचेन्द्रिय पर्याप्तों में इनका उत्कृष्ट अन्तरकाल सागरोपमशतपृथक्त्व है। पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में चारों क्षपक और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कथन किया गया है, वैसा ही है। सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती इन जीवों में इस गुणस्थान का अन्तरकाल नहीं है। पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त जीवों का अन्तरकाल द्वीन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त के समान है । यह पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त जीवों का अन्तरकाल इन्द्रियमार्गणा के आश्रय से कथित है । गुणस्थान की अपेक्षा दोनों प्रकार से अन्तर नहीं होता है, वे निरन्तर हैं । कायमार्गणा में पृथ्वीकाय, जलकाय, तेजस्काय, वायुकाय इनके बादर और सूक्ष्म तथा उन सबके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों में मिथ्यात्व का सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं हैं। एक जीव की अपेक्षा उपर्युक्त पृथ्वीकाय आदि जीवों में मिथ्यात्व का जघन्य अन्तरकाल क्षुद्रभवग्रहण परिमाण है। एक जीव की अपेक्षा उपर्युक्त पृथ्वीकाय आदि जीवों में मिथ्यात्व गुणस्थान का उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त कालात्मक असंख्यात पुद्गल परावर्तन है । वनस्पतिकाय निगोद जीव उनके बादर और सूक्ष्म तथा उन सबके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों का सभी जीवों की अपेक्षा से अन्तरकाल नहीं हैं, वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा उपर्युक्त जीवों का जघन्य अन्तरकाल क्षुद्रभवग्रहण है। एकजीव की अपेक्षा उन्हीं जीवों का उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोक है। बादर वनस्पतिकाय प्रत्येक शरीर उनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है, वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा उन्हीं का जघन्य अन्तरकाल क्षुद्रभवग्रहण है । एक जीव की अपेक्षा उन्हीं जीवों का उत्कृष्ट अन्तरकाल ढाई पुद्गल परावर्तन परिमाण है । ये सब नियम से मिथ्यादृष्टि ही है । त्रसकाय और त्रसकाय पर्याप्त जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में मिथ्यात्व गुणस्थान का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कथन किया गया है, वैसा ही है । त्रसकाय और त्रसकाय पर्याप्त सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा, जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है । एक जीव की अपेक्षा द्वितीय और तृतीय गुणस्थानवर्ती त्रसकाय और त्रसकाय पर्याप्त जीवों में इन गुणस्थानों का जघन्य अन्तरकाल क्रमशः पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा उपर्युक्त जीवों में इन गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल क्रम से पूर्वकोटिपृथक्त्व से अधिक दो हजार सागरोपम और कुछ कम दो हजार सागरोपम परिमाण है । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत तक के गुणस्थानवर्ती त्रसकाय और त्रसकाय पर्याप्त जीवों में इस गुणस्थान का अन्तरकाल, सभी जीवों की अपेक्षा नहीं है, वे निरन्तर रहते हैं। एक जीव की अपेक्षा उपर्युक्त असंयतसम्यग्दृष्टि आदि जीवों में इनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । असंयतादि चारों गुणस्थानवर्ती त्रसकाय और त्रसकाय पर्याप्त जीवों में इन चारों गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल क्रमशः पूर्वकोटिवर्षपृथक्त्व से अधिक दो हजार Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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