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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय.......{128} का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इन दोनों गणस्थानों का उत्कष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागरोपम परिमाण है। सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादष्टि गणस्थानवर्ती देवों में इन दोनों गुणस्थानों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा जघन्यतः एक समय है। सभी जीवों की अपेक्षा सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इन गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल पस्योपम का असंख्यातवाँ भाग है। एक जीव की अपेक्षा सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इन दोनों गुणस्थानों का जघन्य अन्तरकाल क्रमशः पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा द्वितीय और तृतीय गुणस्थानवर्ती देवों में इन दोनों का उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागरोपम है। भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म, ईशान से लेकर सहस्रार कल्प तक के कल्पवासी मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इन दोनों गुणस्थानों का सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर रहते हैं । एक जीव की अपेक्षा उपर्युक्त मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इन दोनों गुणस्थानों का जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा उपर्युक्त देवों में इनका उत्कृष्ट अन्तरकाल क्रमशः एक सागरोपम, एक पल्योपम, साधिक दो, सात, दस, चौदह, सोलह, अठारह सागरोपम है । उपर्युक्त सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल जैसा सामान्य से कहा गया है वैसा ही है। आनत कल्प से लेकर नव ग्रैवेयक पर्यन्त विमानवासी देवों में मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इन दोनों गुणस्थानों का, सभी जीवों की अपेक्षा, अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं। एक जीव की अपेक्षा इनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा आनत-प्राणत, आरण-अच्युत कल्प और नव ग्रैवेयकवासी देवों में मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इन गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम बीस, बाईस, तेईस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस सागरोपम परिमाण है। आनतादि देवों में सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल जैसा सामान्य से कथन किया है, वैसा ही है। अनुदिशों से लेकर सर्वार्थसिद्ध तक के विमानवासी देवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इस गुणस्थान का सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा उपर्युक्त देवों में इस गुणस्थान में अन्तरकाल नहीं है, वह निरन्तर रहता है। तात्पर्य यह है कि अनुदिश आदि विमानवासी देवों में एक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान ही होता है। इन्द्रियमार्गणा में सभी जीवों की अपेक्षा एकेन्द्रिय जीवों का अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा एकेन्द्रियों का जघन्य अन्तरकाल क्षुद्रभवग्रहण परिमाण है। एक जीव की अपेक्षा एकेन्द्रियों का उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व से अधिक दो हजार सागरोपम है। बादर एकेन्द्रियों का, सभी जीवों की अपेक्षा, अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं। एक जीव की अपेक्षा बादर एकेन्द्रियों का जघन्य अन्तरकाल क्षुद्रभवग्रहण परिमाण है। एक जीव की अपेक्षा बादर एकेन्द्रियों का उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोक परिमाण है। इसी प्रकार से बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त जीवों का भी अन्तरकाल जानना चाहिए। सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त जीवों का सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा इन एकेन्द्रिय जीवों का जघन्य अन्तर काल क्षुद्रभवग्रहण परिमाण होता है। एक जीव की अपेक्षा तीनों सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों का उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुल के असंख्यातवें भाग असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल परिमाण है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और उन्हीं के पर्याप्त तथा लब्धि अपर्याप्त जीवों का, सभी जीवों की अपेक्षा, अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा इन द्वीन्द्रियादि जीवों का जघन्य अन्तरकाल क्षद्रभवग्रहण परिमाण है। एक जीव की अपेक्षा इन द्वीन्द्रियादि जीवों का उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त कालात्मक असंख्यात पुद्गल परावर्तन है । एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त और पर्याप्त, सभी नियम से मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती ही होते हैं । पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल, जैसा सामान्यतः कथन किया है, वैसा ही है। पंचेन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय पर्याप्त सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इन दोनों गुणस्थानों का जघन्य अन्तरकाल, Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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