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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{290} है, किन्तु सयोगीकेवली गुणस्थान का काल उतना ही है, जितना देशविरति सम्यग्दृष्टि का है, अर्थात् कुछ कम, एक पूर्वकोटि वर्ष तक हो सकता है। इसी तरह अयोगीकेवली गुणस्थान का काल टीका में तथा अन्य ग्रन्थों में पाँच हृस्व व्यंजनों या स्वरों के उच्चारण काल के समरूप माना गया है। गुणस्थानों के सन्दर्भ काल का विचार करते हुए पंचसंग्रह में सामान्य रूप से विवेचन उपलब्ध होता है। द्वितीय द्वार की छठी गाथा में कहा गया है कि मिथ्यात्व गुणस्थान, अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, देशविरतिसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, प्रमत्तसंयत गुणस्थान, अप्रमत्तसंयत गुणस्थान अनेक जीवों की अपेक्षा से सर्वकाल में पाए जाते हैं, किन्तु इन गुणस्थानों के अतिरिक्त सास्वादन गुणस्थान, मिश्र गुणस्थान, अपूर्वकरण गुणस्थान, अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान, सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान, उपशान्तमोह गुणस्थान, क्षीणमोह गुणस्थान और अयोगीकेवली गुणस्थान अनेक जीवों की अपेक्षा से सर्वकाल में नहीं होते हैं, अर्थात् कभी होते हैं या कभी नहीं होते हैं। इस चर्चा के प्रसंग में मलधारी हेमचन्द्र ने टीका में यह भी बताया है कि मिथ्यात्व गुणस्थान में पूर्व में उत्पन्न जीव तो निरन्तर रहते ही हैं, किन्तु साथ ही साथ इस गुणस्थान में निरंतर जीवों की उत्पत्ति होती रहती है। अन्य अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरतिसम्यग्दृष्टि, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का अस्तित्व तो सर्वकाल में होता है, किन्तु सर्वकाल में इन गुणस्थानों में जीवों का आगमन नहीं होता है, क्योंकि इनमें विरहकाल की संभावना होती है। जहाँ तक सर्वकाल में नहीं होनेवाले आठ गुणस्थानों का प्रश्न है, इनमें अनेक विकल्प सम्भव होते हैं। इस पर पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की गाथा संख्या सात और उसकी टीका में विस्तार से चर्चा की गई है। गुणस्थानों में एक जीव और अनेक जीवों की अपेक्षा काल विचारणा : पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की गाथा क्रमांक ४१, ४२, ४३, ४४, ४५, ५२ तथा ५३-इन सात गाथाओं में एक जीव आश्रयी और अनेक जीव आश्रयी, प्रत्येक गुणस्थान के काल का विवेचन किया गया है । अनेक जीवों की अपेक्षा मिथ्यात्व गुणस्थान का काल अनन्त है। मिथ्यात्व गुणस्थानवी जीवों की जन्म-मरण की धारा सतत् रूप से चलती रहती है, अतः अनेक जीवों की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण अनन्त काल माना गया है। एक जीव की अपेक्षा सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का काल जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से छः आवलिका होता है, किन्तु यदि अनेक जीवों की अपेक्षा से विचार करें, तो इनका काल पल्योपम का असंख्यात भाग अर्थात् असंख्यात उत्सर्पिणी -अवसर्पिणी बताया गया है। इसके पश्चात् अवश्य ही विरहकाल आता है। मिश्रगुणस्थान का एक जीव आश्रित काल जघन्य और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त है। यदि अनेक जीवों की अपेक्षा से विचार करें तो पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग माना गया है। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का एक जीव आश्रयी काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से कुछ अधिक, तेंतीस सागरोपम होता है। देशविरति नामक पंचम गुणस्थान का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से कुछ कम, पूर्वकोटि वर्ष पर्यन्त होता है। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान का काल एक जीव की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त होता है। उपशमक और उपशान्त अर्थात् उपशमश्रेणी वाले से अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय और उपशान्तमोह- इन चार गुणस्थानों का काल एक जीव की अपेक्षा से जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त ही माना गया है, किन्तु अनेक जीवों की अपेक्षा से भी इसका काल अन्तर्मुहूर्त ही माना गया है, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् इन गुणस्थानों को प्राप्त करने वालों में अन्तरकाल या विरहकाल अवश्य होता है। क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवाले जीवों की अपेक्षा अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय और क्षीणमोह गुणस्थानों का काल जघन्य और उत्कृष्ट दोनों से अन्तर्मुहूर्त माना गया है । अनेक जीवों की अपेक्षा से सात समय अधिक अन्तर्मुहुर्त कहा गया है । यहाँ यह जानना आवश्यक है कि उपशमश्रेणी अथवा क्षपकश्रेणी से इन गुणस्थानों को प्राप्त करनेवाले जीवों को निरंतरता 3 । अधिक नहीं होती है, तत्पश्चात् अवश्य ही अन्तर या विरहकाल आता है। सयोगीकेवली गुणस्थान का काल जघन्य से अन्तकृत केवली की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से देशोन पूर्वकोटि पर्यन्त होता है । अयोगीकेवली गुणस्थान का काल पांच हृस्वाक्षर के उच्चारण काल के समरूप होता है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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