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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{291}
गुणस्थानों में अन्तरकाल :
पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की बासठवीं और तिरसठवीं गाथाओं में गुणस्थानों में अन्तरकाल का विवेचन किया है। मिथ्यादृष्टि जीवों में उत्पत्ति सदैव बनी रहती है, अतः मिथ्यात्व गुणस्थान में कोई विरहकाल या अन्तरकाल नहीं होता है। सास्वादन और मिश्र गुणस्थान में अन्तरकाल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग माना गया है। अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरतसम्यग्दृष्टि
और प्रमत्तसंयत- इन तीन गुणस्थानों का अन्तरकाल क्रमशः सात दिन, चौदह दिन और पन्द्रह दिन माना गया है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि सत्ता की अपेक्षा से तो उपर्युक्त चौथा, पाँचवाँ और छठा- ये तीन गुणस्थान सदैव ही होते हैं, अतः यहाँ इनका अन्तरकाल या विरहकाल केवल उनकी प्राप्ति की अपेक्षा से बताया गया है, सत्ता की अपेक्षा से नहीं। अप्रमत्तसंयत गुणस्थान सदैव होता है। इसमें अन्तरकाल नहीं होता है। उपशमश्रेणी से आरोहण करनेवाले अनेक जीवों की अपेक्षा अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय और उपशान्तमोह- इन चार गुणस्थानों का अन्तरकाल वर्ष पृथकत्व है। क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवाले अनेक जीवों की अपेक्षा अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय और क्षीणमोह- इन चार गुणस्थानों में अन्तरकाल नहीं माना गया है। अयोगीकेवली गुणस्थान का अन्तरकाल छः मास माना गया है, परन्तु यह स्मरण रखना चाहिए कि मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरति, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और सयोगीकेवली-इन गुणस्थानों में जीवों की सत्ता हमेशा रहती है, इसीलिए इनमें सत्ता की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं होता है। विभिन्न गुणस्थानों में भाव :
पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की चौंसठवीं गाथा में जीवों के भावों का विवेचन किया गया है। मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती, सास्वादन गुणस्थानवर्ती एवं मिश्रगुणस्थानवी जीवों में औदयिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक- ये तीन भाव होते हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरति सम्यग्दृष्टि एवं प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत- इन चार गुणस्थानों में तीन या चार भाव होते हैं। यदि तीन भाव हों, तो औदयिक-क्षायोपशमिक और पारिणामिक भाव होते हैं। यदि चार भाव हों, तो क्षायिक और औपशमिक दोनों में से कोई एक भाव होता है, दोनों भाव एकसाथ नहीं होते हैं । अतः जहाँ चार भावों की विवक्षा की गई है, वहाँ क्षायिक या औपशमिक भाव में से एक भाव होता है। ये चार भाव क्षायिक या औपशमिक सम्यग्दर्शन की अपेक्षा ग्रहण करना चाहिए। उपशमक में अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय और उपशान्तमोह- इन चार गुणस्थानों में औपशमिक भाव होता है, तथा क्षपक में अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय और क्षीणमोह इन चार गुणस्थानों में क्षायिक भाव होता है। औपशमिक अथवा क्षायिक भाव तो केवल अपूर्वकरण से लेकर उपशान्तमोह और क्षीणमोह गुणस्थान तक होते हैं। सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों में और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में औदयिक, पारिणामिक और क्षायिक भाव होते हैं। सिद्ध के जीवों में क्षायिक
और पारिणामिक भाव होते हैं। विभिन्न गुणस्थानवी जीवों का अल्प बहुत्व :
पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की गाथा क्रमांक ८० और ११ में गुणस्थानों में अल्प-बहुत्व का विवेचन किया गया है। उपशमश्रेणी से मोहनीय कर्म का उपशम करनेवाले आठवें, नवें, दसवें और ग्यारहवें- इन चार गुणस्थानवी जीव क्रमशः उत्तरोत्तर एक दूसरे से संख्यातगुणा अधिक होते हैं। उनकी अपेक्षा क्षपकश्रेणी से आरोहण करने वाले आठवें, नवें, दसवें और बारहवें थानवी जीव उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा अधिक होते हैं। इसप्रकार क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवालों की अपेक्षा क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवाले जीवों की संख्या अधिक होती है, फिर भी इसे सामान्य कथन समझना चाहिए, क्योंकि कभी-कभी दोनों ही श्रेणियों से आरोहण करनेवाले जीव नहीं भी होते हैं, कभी दोनों ही श्रेणियों से आरोहण करनेवाले जीव समान संख्या में होते हैं और कभी उपशमक कम और क्षपक जीव अधिक होते हैं, तो कभी क्षपक कम और उपशमक जीव अधिक
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