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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय.......{183} पर्यवज्ञान में प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणकषाय तक के सात गुणस्थान होते हैं । केवलज्ञान में सयोगीकेवली और अयोगीकेवली ये दो गुणस्थान होते हैं। सामायिक और छेदोपस्थापनीय संयम में प्रमत्तसंयत से लेकर अनिवृत्तिकरण तक के चार गुणस्थान होते हैं। परिहारविशुद्धिसंयम में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत-ये दो गुणस्थान होते हैं। सूक्ष्मसंपरायसंयम में सूक्ष्मसंपराय नामक एक ही गुणस्थान होता है। यथाख्यातसंयम में उपशान्तमोह गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली तक के चार गुणस्थान होते हैं। संयमासंयम में संयतासंयत नामक गुणस्थान होता है । असंयम में मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के चार गुणस्थान होते हैं। चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन में प्रथम से लेकर क्षीणकषाय तक बारह गुणस्थान होते हैं। अवधिदर्शन में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय तक नौ गुणस्थान होते हैं। केवलदर्शन में सयोगीकेवली ओर अयोगीकेवली ऐसे दो गणस्थान होते कृष्ण, नील और कापोत-इन तीन अशुभ लेश्याओं में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से असंयतसम्यग्दृष्टि तक के चार गुणस्थान होते हैं। पीतलेश्या और पद्मलेश्या में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत तक के सात गुणस्थान होते हैं। शुक्ललेश्या में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली तक के तेरह गुणस्थान होते हैं। भव्य जीवों में चौदह गुणस्थान होते हैं। अभव्य जीवों में मात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है । औपशमिक सम्यक्व में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर उपशान्तकषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थान तक आठ गुणस्थान होते हैं । वेदक सम्यक्त्व में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के चार गुणस्थान होते हैं। क्षायिक सम्यक्त्व में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक के ग्यारह गुणस्थान होते हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि में सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान होता है। सम्यग्मिथ्यात्व सम्यक्त्व में सम्यग्मिथ्यादृष्टि नामक तृतीय गुणस्थान होता है। संज्ञी जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक के बारह गुणस्थान होते हैं। असंज्ञी जीवों में मिथ्यादृष्टि नामक एक ही गुणस्थान होता है। आहारमार्गणा में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के तेरह गुणस्थान होते हैं। यह आहार मार्गणा की चर्चा नोकर्म आहार की अपेक्षा से है, कवलाहार की अपेक्षा से नहीं, क्योंकि केवलियों में कवलाहार का अभाव है । अनाहारी जीवों में मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली-ये पांच गुणस्थान होते हैं। प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ गुणस्थान विग्रहगति की अपेक्षा से है तथा सयोगीकेवली गुणस्थान प्रतर और लोकपूरण समुद्घात की अपेक्षा से है। 'मूलाचार के पर्याप्त नामक बारहवें अधिकार की १२२४ वीं गाथा में बताया गया है कि नौ अनुदिश और पांच अनुत्तरविमानवासी देव निश्चय से सम्यग्दृष्टि ही होते हैं अर्थात् अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती होते हैं। इनसे नीचे के वैमानिक, व्यंतर और भवनपति देव मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती होते हैं। नारकी में चार गुणस्थान, तिर्यंच में पांच गुणस्थान और मनुष्य में चौदह गुणस्थान पाए जाते हैं। __ मूलाचार के पर्याप्ति नामक बारहवें अधिकार की १२४१ और १२४२ वीं गाथाओं में तथा उनकी वसुनन्दीकृत टीका में कौन-से गुणस्थानवी जीव कितनी प्रकृतियों का बन्ध करते हैं, इस बात का विवेचन किया गया है। आठ कर्मों की एक सौ अड़तालीस प्रकृतियों में से एक सौ बीस प्रकृतियाँ बन्ध योग्य मानी गई हैं। अट्ठाईस प्रकृतियाँ अबन्ध हैं। पांच शरीरबन्धन, पांच संघातन, चार वर्ण, चार रस, एक गंध, सात स्पर्श, सम्यक्त्व मोहनीय और सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र) मोहनीय-इस प्रकार ये अट्ठाईस प्रकतियाँ बन्ध योग्य नहीं है। बन्ध योग्य एक सौ बीस प्रकृतियों में से आहारकद्विक और तीर्थकर नामकर्म को छोड़कर मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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