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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.
तृतीय अध्याय........{184} एक सौ सत्रह प्रकृतियाँ बांधता है, अर्थात् मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव इन कर्मप्रकृतियों के स्वामी हैं। तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध सम्यक्त्व से और आहारकद्विक का बन्ध संयम से होता है, इसीलिए मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव इन्हें नहीं बांधता हैं। मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, नरकायु, नरकगति, जाति चतुष्क, हुंडक संस्थान, असंप्राप्तासृपाटिका संघयण, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतप नामकर्म, स्थावर नामकर्म, सूक्ष्म नामकर्म, अपर्याप्त नामकर्म और साधारण शरीर-इन सोलह प्रकृतियों को छोड़कर शेष एक सौ एक प्रकृतियों को सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव बांधते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव स्त्यानगृद्धि त्रिक, अनन्तानुबन्धी चतुष्क, स्त्रीवेद तिर्यंचायु, तिर्यंचगति, मध्य के चार संस्थान, मध्य के चार संघयण, तिर्यंचानुपूर्वी, उद्योत नामकर्म, अप्रशस्तविहायोगति नामकर्म, दुर्भग नामकर्म, दुस्वर नामकर्म, अनादेय नामकर्म और नीचगोत्र-इन पच्चीस प्रकृतियों को छोड़कर तथा देवायु और मनुष्यायु को छोड़कर शेष चोहत्तर प्रकृतियों का बन्ध करते हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव तीर्थकर नामकर्म, देवायु और मनुष्यायु सहित सतहत्तर प्रकृतियों को बांधते हैं। संयतासंयत गुणस्थानवी जीव अप्रत्याख्यानीय चतुष्क, मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, मनुष्यायु, वज्रऋषभनाराच संघयण और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी-इन दस प्रकृतियों को छोड़कर तथा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव की बन्ध प्रकृतियों को अर्थात् तीर्थंकर नामकर्म और आहारकद्विक से सहित सड़सठ प्रकृतियों का पंचम गुणस्थानवी जीव बन्ध करते हैं। प्रत्याख्यानीय चतुष्क को छोड़कर शेष संयतासंयत गुणस्थानवी जीव की बन्ध प्रकृतियों को अथवा पचपन प्रकृति रहित मिथ्यादृष्टि प्रकृतियों में तीर्थंकर और आहारकद्विक-ये तीन सहित पैंसठ प्रकृतियों को प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव बांधते है। असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर नामकर्म, अशुभ नामकर्म और अयशः कीर्ति नामकर्म-इन छः प्रकृतियों को कम करने से शेष उनसठ प्रकृतियों का बन्ध अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव करते हैं। देवायु को कम करने से शेष अट्ठावन प्रकृतियों को अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती संयत बांधता हैं। निद्रा और प्रचला से रहित छप्पन प्रकृतियों को अपूर्वकरण गुणस्थान के संख्यात भाग जाने पर अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती संयत बांधते हैं। पुनः इस गुणस्थान के संख्यात भाग जाने पर पंचेन्द्रियजाति, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियशरीरांगोपांग, आहारकशरीरांगोपांग, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, देवगति, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु नामकर्म, उपघात नामकर्म, पराघात नामकर्म, उच्छ्वास नामकर्म, विहायोगति नामकर्म, त्रस नामकर्म, बादर नामकर्म, पर्याप्त नामकर्म, प्रत्येक शरीर नामकर्म, स्थिर नामकर्म, (शुभ नामकर्म) सुभग नामकर्म, सुस्वर नामकर्म, आदेय नामकर्म, निर्माण नामकर्म और तीर्थंकर नामकर्म-इन तीस प्रकृतियों को छोड़कर, शेष छब्बीस प्रकृतियों को अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती संयत ही बांघते हैं, अर्थात् अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम भाग में अट्ठावन का, संख्यात भाग के बाद छप्पन का और पुनः संख्यातवें भाग के बाद छब्बीस का बन्ध होता है । अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के प्रथम भाग में हास्य, रति, भय, और जुगुप्सा रहित बाईस प्रकृतियों को अनिवृत्तिबादर गुणस्थानवर्ती संयत बांधते हैं। अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के द्वितीय भाग में पुरुषवेद रहित इक्कीस प्रकृतियों का बन्ध करते हैं। तृतीय भाग में संज्वलन क्रोध रहित बीस प्रकृतियों का, चतुर्थ भाग में संज्वलन मान रहित उन्नीस प्रकृतियों का और पंचम भाग में संज्वलन माया रहित अठारह प्रकृतियों का बन्ध, अनिवृत्तिबादर गुणस्थानवर्ती संयत करते हैं। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती मुनि संज्वलन लोभ रहित सत्रह प्रकृतियों का बन्ध करते हैं। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती मुनि इस गुणस्थान के द्वितीय भाग में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, पांच अन्तराय, उच्चगोत्र और यशः कीर्ति नामकर्म-इन सोलह प्रकृतियों को छोड़कर मात्र एक सातावेदनीय का ही बन्ध करते हैं। उपशान्तकषाय गुणस्थानवर्ती संयत, क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती संयत और सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जिन मात्र सातावेदनीय का ही बन्ध करते हैं। अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जिन अबन्धक हैं, वे किंचित् मात्र भी कर्म का बन्ध नहीं करते हैं ।
मूलाचार की गाथा क्रमांक १२४८ में केवलज्ञान की प्राप्ति किस प्रकार होती है, इसकी चर्चा है । उसमें कहा गया है कि मोहनीय कर्म के क्षय हो जाने से तथा उसके पश्चात् आवरण रूप ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय तथा अन्तराय कर्म का क्षय हो जाने पर सर्व भावों का प्रकाशक केवलज्ञान उत्पन्न होता है । इसके पश्चात् केवली भगवान् युगपत् रूप से नाम, गोत्र, आयुष्य और
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