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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{185} वेदनीय-इन चारों अघाती कर्मों को क्षय करके औदारिक शरीर का त्याग करके नीरज, सिद्ध अवस्था को प्राप्त करते हैं। यद्यपि यहाँ मूल गाथा में गुणस्थान शब्द का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, फिर भी ये दोनों गाथायें सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थान की परिचायक मानी जाती हैं। वसुनन्दि ने इन गाथाओं की टीका में विस्तार से इस बात की चर्चा की है कि श्रेणी आरोहण करता हुआ जीव किन-किन कर्म प्रकृतियों का क्षय करते हुए इन अवस्थाओं को प्राप्त होता है।
इस प्रकार ग्रन्थ के प्रारंभ में प्रयुक्त सर्वसंयत पद को टीकाकार ने गुणस्थान का वाचक माना है, किन्तु यह मान्यता उचित नहीं है । इस गाथा की टीका में वसुनन्दि ने संयत पद से प्रमत्तंसयत गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती सभी साधकों को गृहीत किया है, फिर भी मूल गाथा में मात्र सर्वसंयत (सव्वसंजदे) पद होने से इसे सामान्यरूप से मुनियों का ही वाचक माना जा सकता है, गुणस्थान का सूचक नहीं। मूलाचार की पांचवीं गाथा में भी जीवों का वर्गीकरण करते हुए कायस्थान, इन्द्रियस्थान, गुणस्थान, मार्गणास्थान, कुलस्थान, आयुस्थान और योनिस्थान की अपेक्षा से जीवों के वर्गीकरण का संकेत दिया गया है। इसमें गुणस्थान और मार्गणास्थान का स्पष्ट उल्लेख होने से यह माना जा सकता है कि मूलाचार के कर्ता आचार्य वट्टकेर न केवल गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा से परिचित थे, अपितु उन्हें गुणस्थान और मार्गणास्थानों का सहसम्बन्ध भी ज्ञात था। मूलाचार के टीकाकार ने भी यहाँ गुण से गुणस्थान और मग्गं से मार्गणास्थान ग्रहण किया है । मात्र यही नहीं उन्होंने टीका में चौदह गुणस्थानों के नाम भी दिए हैं । इस प्रकार ग्रन्थ के प्रारंभ में ही गुणस्थान शब्द के उल्लेख से यह सुनिश्चित हो जाता है कि ग्रन्थकार गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा से सुपरिचित रहे हैं। चाहे वर्ण्य विषय की भिन्नता के कारण उन्होंने अपने इस ग्रन्थ में गुणस्थान सिद्धान्त की सूक्ष्म विवेचना न की हो, फिर भी ग्रन्थ में प्रकीर्ण रूप से गुणस्थान सम्बन्धी उल्लेख मिलते है, जिसकी चर्चा हमने की है । गाथा क्रमांक ५६ में बालमरण, बालपण्डितमरण एवं पण्डितमरण का उल्लेख हुआ है । मूल गाथा में तो यहाँ भी गुणस्थान की कोई चर्चा नहीं है, किन्तु आचार्य वसुनन्दि ने इसकी टीका में यह स्पष्ट किया है कि अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के जीव बाल कहलाते हैं। संयतासंयत गुणस्थानवर्ती जीव बालपण्डित कहलाते हैं और संयत गुणस्थानवी जीव पण्डित कहलाते हैं। उन्होंने यहाँ संयतों में छठे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक के सभी जीवों को गृहीत किया है । इसी क्रम में गाथा क्रमांक १०७ में अरहन्त और वीतमोह शब्दों का उल्लेख है। किन्तु ये शब्द गुणस्थान के सूचक हो ऐसा नहीं माना जा सकता है । गाथा क्रमांक २०४ में संसारी और सिद्ध जीवों का उल्लेख है, किन्तु हमारी दृष्टि में इस गाथा का सम्बन्ध भी गुणस्थान की अवधारणा से नहीं हैं। पुनः गाथा क्रमांक ४०४ एवं ४०५ में उपशान्त, क्षीणकषाय, सूक्ष्मक्रिया सयोगीकेवली और अयोगीकेवली-ऐसी चार अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है । यहाँ यह बताया है कि उपशान्तकषाय गुणस्थानवर्ती मुनि शुक्लध्यान के प्रथम चरण पृथक्त्वसवितर्कविचार का ध्यान करते हैं। क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती मुनि शुक्लध्यान के एकत्ववितर्कअविचार नामक द्वितीय चरण का ध्यान करते हैं। सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती मुनि सूक्ष्मक्रिया नामक शुक्लध्यान के तृतीय चरण का और अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती मुनि समुच्छिन्नक्रिया नामक शुक्लध्यान के चतुर्थ चरण का ध्यान करते हैं। इस चर्चा से पुनः यह स्पष्ट हो जाता है कि मूलाचार के कर्ता आचार्य वट्टकेर न केवल गुणस्थान की अवधारणा से परिचित रहे हैं, अपितु उन्होंने शुक्लध्यान के चारों चरणों में क्रमशः उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती आत्माओं का उल्लेख भी किया है। मूलाचार के गाथा क्रमांक ८८५ में ध्यान की चर्चा के प्रसंग में यह कहा गया है कि आर्त और रौद्रध्यान का परिहार करके धर्म और शुक्लध्यान में लीन, शुक्लध्यान से युक्त मुनि को अनिवृत्ति कषायें विचलित नहीं कर सकती हैं। मूल गाथा में तो केवल 'अनियट्टि' पद ही मिलता है । जिसका अर्थ अनिवृत्त कषायें होता है, किन्तु यहाँ टीकाकार वसुनन्दि ने अनिवृत्तिकरण गुणस्थान का सूचन किया है । अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में मात्र संज्वलन कषायों की ही सत्ता होती है, इसीलिए वे व्यक्ति के चारित्र का विध्वंस करने में समर्थ नहीं हैं। टीकाकार की दृष्टि में यहाँ ध्यान के सन्दर्भ में गुणस्थान के अवतरण का प्रयत्न देखा जा सकता है, फिर भी इस सम्बन्ध में कोई विस्तृत चर्चा उपलब्ध नहीं होती है । आगे मूलाचार की गाथा क्रमांक ६११ में दस कल्पों का विवेचन है । यहाँ मूल गाथा में गुणस्थान का कोई निर्देश नहीं है, किन्तु टीकाकार वसुनन्दि ने ज्येष्ठ कल्प की चर्चा के प्रसंग में
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