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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
प्रथम अध्याय........{22} अर्थात् मुनि जीवन को स्वीकार कर अग्रिम गुणस्थान को प्राप्त कर लेता है।
छठा गुणस्थान प्रमत्तसंयत गुणस्थान है। यह अवस्था चारित्रिक विकास की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण अवस्था है। हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार और परिग्रह का सम्पूर्ण रूप से त्याग करके ही व्यक्ति आध्यात्मिक विकास की इस अवस्था को प्राप्त कर सकता है। इस अवस्था में व्यक्ति पूर्ण रूप से संयम का पालन करता है। संज्वलन कषाय चतुष्क को छोड़कर वह अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानीय और प्रत्याख्यानीय-इन तीन कषाय चतुष्कों पर विजय प्राप्त कर लेता है। क्रोधादि कषायों की बाह्य अभिव्यक्ति पूर्णतः समाप्त हो जाती है। व्यक्ति अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का सम्यक् प्रकार से पालन करता है। यद्यपि इस अवस्था में देहभाव और कषायों के सूक्ष्म रूप बने रहते हैं, फिर भी व्यक्ति की आत्मसंयम की शक्ति इतनी ज्ञानी होती है कि जीवन में कषायों का प्रकटन पूर्ण रूप से रुक जाता है। इस गुणस्थान को प्रमत्तसंयत गुणस्थान इसीलिए कहा जाता है कि इस अवस्था में साधक संयम का तो पालन करता है, किन्तु सतत जागरूकता सम्भव नहीं होती है। देहभाव या देहासक्ति पूर्णतया समाप्त नहीं होती है। व्यक्ति छद्मरूप में उपस्थित कषायों और देहभाव के कारण सतत् जागरूकता रख पाने में समर्थ नहीं होता है, अतः प्रमाद आकर उसे घेर लेता है। इसी कारण इस गुणस्थान को प्रमत्तसंयत गुणस्थान कहा गया है। यह अवस्था छद्म एवं अन्तर में निहित वासनाओं और कषायों के साथ संघर्ष की अवस्था है। कभी व्यक्ति पर वासनाएँ हावी होती हैं, तो कभी वह वासनाओं पर हावी हो जाता है। देहभाव के कारण जब वासनाएँ उस पर हावी हो जाती हैं, तब वह इस छठे गुणस्थान में रहता है, किन्तु इस संघर्ष की अवस्था में जब वह वासनाओं को दबा देता है या उन पर हावी हो जाता है, तब वह सातवें गुणस्थान को प्राप्त कर लेता है।
सातवाँ गुणस्थान अप्रमत्तसंयत गुणस्थान है। इस गुणस्थान में संज्वलन कषायों की सत्ता तो समाप्त नहीं होती है। वह व्यक्ति छद्मरूप से रही हुई कषायों के प्रति सजग होता है, तो वे अपनी बाह्य अभिव्यक्ति करने में असमर्थ रहती है। जिस प्रकार घर में घुसा हुआ चोर गृहस्वामी के जागने पर अपना चौर्यकर्म करने में सफल नहीं हो पाता है, वैसे ही इस गुणस्थान में स्थित आत्मा अपनी सतत् जागरूकता के कारण छद्म कषायों से अप्रभावित रहती है। जैन परम्परा में निद्रा आदि असजगता की स्थितियों के साथ-साथ कषायों को भी प्रमाद की संज्ञा से अभिहित किया गया है। यद्यपि इस गुणस्थान में कषाएं छद्म रूप से बनी तो रहती हैं, किन्तु जब तक व्यक्ति उनके प्रति सजग रहता है, तब तक वे अपना प्रभाव आत्मा पर डालने में असमर्थ रहती है। इसप्रकार अप्रमत्तसंयत नामक यह गुणस्थान आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण माना गया है। जैन परम्परा की दृष्टि से प्रथम छ: गणस्थानों में आत्मा पर कर्म हावी होते हैं। व्यक्ति में आत्म पुरुषार्थ की शक्ति होते हुए भी कर्मों के प्रभाव से वह कण्ठित रहती है। साथ में अप्रमत्तसंयत नामक इस गुणस्थान में व्यक्ति अपनी आत्म-सजगता के कारण अपना आध्यात्मिक विकास करने में स्वतन्त्रता का अनुभव करता है। प्रथम से लेकर छठे गुणस्थान तक आत्मा की परतंत्रता की अवस्था है, किन्तु सातवें गुणस्थान में वह परतंत्रता से मुक्त होकर आत्म स्वतन्त्रता की स्थिति में श्वास लेना प्रारम्भ करती है ।
आठवाँ गुणस्थान अपूर्वकरण के नाम से अभिहित किया गया है। इस अवस्था में आत्मा छद्म रूप से रही हुई कषायों हास्य आदि नोकषायों पर अपनी विजय यात्रा प्रारम्भ करती है। सातवें गुणस्थान में आत्म-स्वातंत्र्य की अनुभूति करने के बाद आत्मा में इतने साहस का विकास हो जाता है कि वह छद्म रूप में रहे हुए क्रोधादि कषायों के पूर्ण उन्मूलन का प्रयत्न करती है। आध्यात्मिक विकास की पूर्णता को प्राप्त करने के लिए वास्तविक यात्रा तो यहीं से प्रारम्भ होती है। जैन परम्परा में इसे श्रेणी आरोहण कहा जाता है। इस अवस्था के पूर्व तक कर्म आत्मा को प्रभावित करते थे, किन्तु अब आत्मा कर्मों को अपने ढंग से योजित करने का प्रयत्न करती है। कर्मों की स्थिति, रस आदि को क्षीण करने की उसमें अपूर्व शक्ति विकसित होती है। यही कारण है कि इस गुणस्थान को अपूर्वकरण गुणस्थान कहा जाता है। इस गुणस्थान से आध्यात्मिक विकास की यात्रा दो रूपों में प्रारम्भ होती है, एक उपशमश्रेणी और दूसरी क्षपकश्रेणी। यदि व्यक्ति छद्म कषायों का समूल नाश नहीं करते हुए, उन्हें दबाकर आगे
बढ़ता है, तो वह उपशमश्रेणी कही जाती है। इसमें सूक्ष्म कषायों की अभिव्यक्ति तो रुकती है, किन्तु उनकी सत्ता समूल रूप से । नष्ट नहीं होती है। व्यक्ति की आध्यात्मिक विकास की यात्रा आगे बढ़ते हुए भी उससे पतन की संभावना समाप्त नहीं होती है, किन्तु जो व्यक्ति क्षपकश्रेणी से यात्रा करते हैं, वे इस गुणस्थान से आगे बढ़ते हुए अन्त में कैवल्य को प्राप्त कर लेते हैं।
आध्यात्मिक विकास की यात्रा का अग्रिम चरण अनिवृत्तिबादरसम्पराय नामक गुणस्थान है। शाब्दिक दृष्टि से कहे तो इस गुणस्थान में रागादि भाव से व्यक्ति पूर्णतया मुक्त नहीं हो पाता है, किन्तु मुक्त होने का प्रयत्न अवश्य करता है। इस गुणस्थान में वह सूक्ष्म लोभ को छोड़कर संज्वलन कषाय त्रिक, हास्यषट्क और वेदत्रय पर पूर्णतः विजय प्राप्त कर लेता है। उसकी वासनाएँ
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