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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... प्रथम अध्याय........{23} . . और कषाएं या तो निर्मूल हो जाती है या इतनी क्षीण हो जाती है कि उनमें अभिव्यक्ति की सामर्थ्य नहीं रहती है। इस गुणस्थान में आत्मा मोहनीय कर्मों पर अधिकांश रूप से विजय प्राप्त कर लेती है। दसवाँ गुणस्थान सूक्ष्मसम्पराय नाम से अभिहित किया गया है। इस अवस्था में देह-राग को छोड़कर सभी कषाएं या तो निर्मूल हो जाती हैं, या फिर सत्ता में रहते हुए भी पूर्णतया उपशान्त रहती हैं। जो व्यक्ति क्षपकश्रेणी से अपनी यात्रा करता है, उसमें इनका पूर्णतया अभाव होता है, किन्तु जो व्यक्ति उपशमश्रेणी से यात्रा करता है, उसमें कषायों का उदय तो पूर्णतया रूक जाता है, किन्तु सत्ता का समूल नाश नहीं होता है। ऐसा व्यक्ति अग्रिम ग्यारहवें गुणस्थान तक पहुँचकर वहाँ से पतित होता है। ग्यारहवाँ गुणस्थान उपशान्तमोह है। जो व्यक्ति कर्मों का क्षय न करके वासनाओं और कषायों को दमित करके यात्रा करते हैं, उनके आध्यात्मिक विकास का यह अन्तिम पड़ाव है। उपशमश्रेणी से यात्रा करने वाला साधक दसवें गुणस्थान से इस ग्यारहवें गुणस्थान को प्राप्त करता है, किन्तु क्षपकश्रेणी से यात्रा करनेवाला इस गुणस्थान का अतिक्रमण कर सीधा बारहवें गुणस्थान को प्राप्त होता है। जो व्यक्ति वासनाओं और कषायों को उपशान्त करते हुए इस गुणस्थान तक पहुँचते हैं, वे इस गुणस्थान में अधिकतम अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर पुनः नीचे की ओर लौट जाते हैं। जैनदर्शन में इस गुणस्थान का उल्लेख यह सिद्ध करता है कि आध्यात्मिक विकास का वास्तविक मार्ग वासनाओं और कषायों के दमन का मार्ग नहीं है। इस मार्ग से यात्रा करने वाला साधक मुक्ति को प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि दमित वासनाएँ कालान्तर में अभिव्यक्त होती ही हैं और वे आध्यात्मिक विकास के इस उच्चतम शिखर से पुनः नीचे गिरा देती हैं। आधुनिक मनोविज्ञान आज वासनाओं के दमन के मार्ग को अनुचित बताने का जो प्रयास कर रहा है, उसे जैनाचार्यों ने सदियों पूर्व ही व्यक्त कर दिया था। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि आध्यात्मिक विकास का सच्चा मार्ग तो वासनाओं के निर्मूलीकरण का मार्ग है। आध्यात्मिक विकास का अग्रिम सोपान क्षीणमोह गुणस्थान कहा गया है। इस गुणस्थान में चारित्रिक विकास पूर्णता की स्थिति में होता है, क्योंकि इस अवस्था में वासनाएँ और कषाएं पूर्णतया निर्मूल हो जाती हैं। शास्त्रीय परिभाषा की दृष्टि से दर्शनमोह और चारित्रमोह पूर्णतया क्षीण हो जाता है, क्योंकि ये दोनों ही प्रकार के मोहनीय कर्मबन्धन के मुख्य आधार रहे हुए है। इनके समाप्त होने के साथ-साथ इस गुणस्थान में ज्ञान, दर्शन (अनुभूति) और आध्यात्मिक विकास में बाधक अन्तराय कर्म भी मोहनीय कर्म की सत्ता के समाप्त होने के साथ ही अपना अस्तित्व खो बैठते है। इसप्रकार यह गुणस्थान आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस गुणस्थान के उपान्त्य काल में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म के क्षय होने से अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति हो जाती है और व्यक्ति आध्यात्मिक पूर्णता के शिखर रूप तेरहवें सयोगीकेवली गुणस्थान को प्राप्त हो जाता है। तेरहवाँ सयोगीकेवली गुणस्थान आध्यात्मिक विकास का अन्तिम चरण है। संसारदशा में रहते हुए भी यह आध्यात्मिक पूर्णता का सूचक है। इसमें आत्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य से युक्त हो जाती है। आत्मा की ये चारों शक्तियाँ जो पूर्व में आवरित थी, वे अनावरित होकर पूर्ण रूप से प्रकट हो जाती है। यह जीवन्मुक्त या सदेह मुक्ति की अवस्था है। जैनदर्शन की दृष्टि से इस गुणस्थान को प्राप्त करके आत्मा परमात्मपद को प्राप्त कर लेती है। यह आत्म पुरुषार्थ की दृष्टि से कृतकृत्यता की स्थिति है, क्योंकि अब व्यक्ति के लिए कुछ भी करणीय शेष नहीं रहता है। इसे अर्हन्त अवस्था भी कहा गया है। जब तक आयुष्य की और देह की स्थिति बनी रहती है, तब तक संसार में रहकर भी वह विमुक्त ही रहती है। जब आयुष्य और देह की समाप्ति की स्थिति ज्ञात होती है, तब वह चौदहवें अयोगीकेवली गुणस्थान को प्राप्त कर इस देह का त्याग कर देती है और सिद्ध अवस्था को प्राप्त हो जाती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि गुणस्थान सिद्धान्त प्रगाढ़ बन्धन की अवस्था से पूर्ण विमुक्ति की अवस्था तक आध्यात्मिक विकास के विभिन्न सोपानों को सूचित करता है। यद्यपि आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से जैनदर्शन में लेश्या सिद्धान्त और त्रिविध आत्मा की अवधारणा का भी उल्लेख हुआ है। लेश्या सिद्धान्त मूलतः व्यक्ति के शुभाशुभ मनोभावों का सूचक है। तीव्रतम अशुभ मनोभावों से विशुद्धतम शुभ मनोभावों की जो यात्रा है, वह लेश्याओं की अवधारणाओं द्वारा सूचित की गई है। जैन दर्शन में लेश्याएं निम्न छः मानी गई है - (१) कृष्ण (२) नील (३) कापोत (४) तेजो (५) छद्म और (६) शुक्ल। इनमें कृष्णलेश्या तीव्रतम संक्लेश युक्त अशुभ मनोभावों की सूचक है, जबकि नीललेश्या तीव्रतर संक्लेशयुक्त अशुभ मनोभावों की सूचक है। कापोतलेश्या अपेक्षाकृत मन्द संक्लेश युक्त अशुभ आत्म-परिणामों की सूचक है। अग्रिम तीन लेश्याएँ शुभ मनोभावों की सूचक है। इनमें भी तरतमता की दृष्टि से तेजोलेश्या शुभ मनोभावों की सूचक है, वहीं पद्मलेश्या शुभतर आत्म-परिणामों की सूचक है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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