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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........
प्रथम अध्याय......{24}
शुक्लेश्या शुभम या शुद्ध आत्म-परिणामों की सूचक है। इसप्रकार लेश्याओं की अवधारणा भी आध्यात्मिक विकास की सूचक है, किन्तु फिर भी गुणस्थानों की अवधारणा और लेश्या सिद्धान्त की अवधारणा में तात्विक अन्तर है । लेश्या का सम्बन्ध मुख्यतया मनोभावों से है, जबकि गुणस्थानों का सम्बन्ध कर्ममल की विशुद्धि से है। यही कारण है कि प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में भी छह लेश्याओं की सम्भावना स्वीकार की गई है। मनोभावों की विशुद्धि और कर्मविशुद्धि में अन्तर है । यद्यपि कर्मविशुद्धि मनोभाव विशुद्ध होते हैं, किन्तु कर्म की सत्ता होते हुए भी मनोभावों में परिवर्तन सम्भव है। गुणस्थानों की अपेक्षा से लेश्याओं की चर्चा करते हुए यह माना गया है कि प्रथम छः गुणस्थानों में छहों लेश्याएँ सम्भव होती हैं। सातवें गुणस्थान में मात्र तीन शुभ लेश्याएँ ही सम्भव होती हैं। आठवें गुणस्थान से लेकर तेरहवें सयोगीकेवली गुणस्थान तक मात्र एक शुक्ललेश्या ही होती है। चौदहवें गुणस्थान में लेश्या का अभाव होता है। लेश्या कोई भी हो, वह कर्मबन्ध का कारण तो अवश्य है। चौदहवें गुणस्थान में • लेश्या का अभाव होने पर ही बन्ध का अभाव होता है। इसप्रकार यद्यपि लेश्या सिद्धान्त भी आध्यात्मिक विशुद्धि का आधार माना सकता है, फिर भी उसमें मुख्यरूप से मनोभावों की विशुद्धि को ही प्रधानता दी गई है, आत्मविशुद्धि या कर्ममल की विशुद्धि को नहीं ।
इसी प्रकार आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से जैनदर्शन में आचार्य कुन्दकुन्द से प्रारम्भ करके पूज्यपाद देवनन्दी, मुन रामसिंह, आचार्य योगिन्दुदेव, आचार्य शुभचन्द्र, आचार्य हेमचन्द्र, आशाधर, यशोविजय, आनन्दघन, देवचन्द्र आदि ने त्रिविध आत्मा की अवधारणा को प्रस्तुत किया है । विषयोन्मुख आत्मा को बहिरात्मा कहा जाता है, आत्मोन्मुख या साधक आत्मा को अन्तरात्मा कहा जाता है और कर्मकलंक से रहित विशुद्ध आत्मा, परमात्मा कही जाती है। गुणस्थानों की दृष्टि से प्रथम से लेकर तीसरे गुणस्थान में स्थित आत्मा बहिरात्मा है। चौथे गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक की आत्माएँ अन्तरात्मा कही जाती हैं। आचार्यों ने गुणस्थानों के आधार पर अन्तरात्मा के भी तीन भेद किए हैं। चतुर्थ गुणस्थान में स्थित अन्तरात्मा जघन्य अन्तरात्मा है, पांचवें गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान तक की आत्माएँ मध्यम अन्तरात्मा कही गई है। ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में स्थित आत्मा उत्कृष्ट अन्तरात्मा कही गई है। गुणस्थानों की अपेक्षा से तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवर्ती आत्माएँ परमात्मा कही जाती हैं । यद्यपि त्रिविध आत्मा की अवधारणा और गुणस्थान की अवधारणा- दोनों ही आध्यात्मिक विकास की सूचक है, फिर भी गुणस्थान की अवधारणा में जो सूक्ष्मता है, वह त्रिविध आत्मा की अवधारणा में नहीं है । गुणस्थानों की चर्चा
मूल में कर्मविशुद्धि को प्रमुखता दी गई है, जबकि त्रिविध आत्मा की अवधारणा में मुख्यतः भावों की विशुद्धि की है । यद्यपि कर्मविशुद्धि के आधार पर ही भाव विशुद्धि होती है, फिर भी भावों की विशुद्धि के साथ-साथ गुणस्थान की अवधारणा में कर्मों के उदय, उदयविच्छेद, बन्ध, बन्धविच्छेद, सत्ता, सत्ताविच्छेद आदि की जितनी गम्भीर चर्चा मिलती है, उतनी गम्भीर चर्चा त्रिविध आत्मा की अवधारणा में उपलब्ध नहीं होती है । गुणस्थान सिद्धान्त का सम्पूर्ण ढांचा कर्मसिद्धान्त के आधार पर खड़ा हुआ है। अग्रिम अध्यायों में हम इस सम्बन्ध में विस्तार से विचार करेंगे कि विभिन्न गुणस्थानों में किन कर्मप्रकृतियों का उदय रहता है, किनकी उदीरणा सम्भव होती है और किन कर्मप्रकृतियों का उदयविच्छेद हो जाता है । इसीप्रकार बन्ध की अपेक्षा से भी किन गुणस्थानों में किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है और किन कर्मप्रकृतियों का बन्धविच्छेद हो जाता है। सत्ता की अपेक्षा से किन कर्मप्रकृतियों की सत्ता रहती है और किन कर्मप्रकृतियों की सत्ता का विच्छेद हो जाता है। जैन आगमों और कर्मसाहित्य के ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में अति विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है। अग्रिम अध्यायों में हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि जैनसाहित्य
में गुणस्थान की और उनके साथ कर्मों के सहसम्बन्ध की चर्चा किस रूप में उपलब्ध होती है । इस समग्र विवेचन में हमने सर्वप्रथम श्वेताम्बर अर्द्धमागधी आगम साहित्य और आगमिक व्याख्या साहित्य के आधार पर चर्चा की है। उसके पश्चात् शौरसेनी आगम साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा किस रूप में उपलब्ध है, इस पर गम्भीरता से विचार किया है। दोनों ही परम्पराओं के आगम साहित्य या आगम तुल्य साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा की इस चर्चा के पश्चात् अपनी विवेचना में हमने तत्त्वार्थसूत्र और उसकी श्वेताम्बर तथा दिगम्बर टीकाओं को आधार मानकर चर्चा की है। उसके पश्चात् अग्रिम अध्याय में श्वेताम्बर और दिगम्बर कर्मसाहित्य में गुणस्थान की अवधारणा किस रूप में उपस्थित है, इसे स्पष्ट करने का प्रयास किया है। छठा अध्याय परवर्ती काल में रचित गुणस्थान सम्बन्धी स्वतन्त्र ग्रन्थों का उल्लेख करता है और अन्त में गुणस्थान की अवधारणा पर तुलनात्मक दृष्टि से विचार किया गया है। अतः इस अध्याय में हम गुणस्थानों के सामान्य स्वरूप चर्चा के साथ विराम लेते हैं ।
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