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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........
तृतीय अध्याय ........{188}
मिस्से सासणसम्मे मिच्छादिट्ठिम्हि होइ एक्केक्कं । सण्णिस्स बारस खलु हवदि असण्णीसु मिच्छत्तं ॥ अर्थ-मिश्र, सासादन और मिथ्यादृष्टि में अपने-अपने एक-एक गुणस्थान हैं । संज्ञी के बारह गुणस्थान हैं एवं असंज्ञी में मिथ्यात्व नाम का एक गुणस्थान है ।
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आहारस्स य तेरस पंचेव हवंति जाण इयरस्स । मिच्छासासण अविरद सजोगी अजोगी य बोद्धव्वा ।।
अर्थ- आहार मार्गणा में तेरह गुणस्थान हैं। अनाहार मार्गणा में मिथ्यात्व, सासादन, अविरति, सयोगी और अयोगी-ये पांच गुणस्थान होते हैं ।
इसके पश्चात् गाथा क्रमांक १२२४ की वसुनन्दि की टीका में चौदह गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या की अपेक्षा अल्प- बहुत्व की निम्न चर्चा है-सबसे कम अयोगीकेवली है । चारों उपशमक उन अयोगियों से संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातगुणे सयोगकेवली हैं । इससे संख्यातगुणे अप्रमत्त मुनि हैं। इनसे असंख्यातगुणे संयतासंयत तिर्यंच और मनुष्य हैं। ये पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र है जिनकी संदृष्टि ५६६६६ है । इनसे असंख्यातगुणे चारों गतियों के सासादनसम्यग्दृष्टि हैं, इनकी संदृष्टि ५० है । इनसे संख्यातगुणे. चारों गतियों के सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव हैं, जिनकी संदृष्टि पल्य ६० है । इनसे असंख्यातगुणे चारों गतियों से असंयतसम्यग्दृष्टि जीव हैं। इनसे अनन्तगुणे सिद्ध हैं। सभी मिथ्यादृष्टि जीव इन सिद्धों से भी अनन्तानन्तगुणे हैं । किन्तु यह चर्चा भी केवल टीका में ही है, मूल गाथा में नहीं है । इसके पश्चात् मूलाचार की गाथा क्रमांक १२४१-१२४२ में किस गुणस्थानवर्ती जीव किन-किन कर्मप्रकृत्तियों का बन्ध करते हैं, इसकी संक्षिप्त चर्चा उपलब्ध होती हैं। इसी प्रकार गाथा क्रमांक १२४८-१२४६ में बारहवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक आत्मा किस प्रकार अघातीकर्मों का क्षय करती है, इसकी चर्चा है। मूल गाथाओं में तो यह चर्चा अत्यन्त संक्षिप्त ही है । मूलाचार की गाथा क्रमांक १२४१ एवं १२४२ में यह उल्लेख है कि एक सौ अड़तालीस कर्मप्रकृतियों में से एक सौ बीस कर्मप्रकृतियाँ बन्ध योग्य मानी गई हैं। मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव आहारकद्विक और तीर्थंकर नामकर्म को छोड़कर शेष ( ११७ ) कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं । सम्यग्दृष्टि जीव तैंतालीस कर्मप्रकृतियों को छोड़कर सतहत्तर कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं। श्रावक तिरपन कर्मप्रकृतियों को छोड़कर शेष सड़सठ कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं। संयत अर्थात् प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती मुनि पचपन कर्मप्रकृतियों को छोड़कर, शेष पैंसठ कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं। मूल गाथाओं में इस संक्षिप्त चर्चा के अतिरिक्त, किन गुणस्थानों में किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है, इसकी चर्चा नहीं हैं, किन्तु जैसा कि हमने पूर्व में सूचित किया है कि वसुनन्दि अपनी टीका में किन गुणस्थानों में किन-किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है, इसकी चर्चा करते हैं । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि फलटण से प्रकाशित पत्राकार मूलाचार में कुछ गाथाएं अधिक हैं, जिनमें किन गुणस्थानों में किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है, इसका उल्लेख है । उनके अनुसार सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव उन्नीस कर्मप्रकृतियों को छोड़कर शेष एक सौ एक कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं। मिश्र गुणस्थानवर्ती जीव छियालीस कर्मप्रकृतियों को छोड़कर शेष चौहत्तर कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं। अन्य दो गाथाओं में कहा गया है कि अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव इकसठ कर्मप्रकृतियों को छोड़कर शेष उनसठ कर्म आकृतियों का बन्ध करते हैं। अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती जीव बासठ कर्म आकृतियों को छोड़कर शेष अट्ठावन कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं । अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती जीव अट्ठानवें कर्मप्रकृतियों को छोड़कर बाईस कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती जीव एक सौ तीन कर्मप्रकृतियों को छोड़कर शेष सत्रह कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं । उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगी केवली - इन तीन स्थावर्ती जीव एक सौ उन्नीस कर्मप्रकृतियों को छोड़कर, मात्र एक सातावेदनीय का बन्ध करते हैं। अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव अबन्धक होते हैं, अर्थात् उन्हें किसी भी कर्मप्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है । इस प्रकार फलटण की प्रति के 'अनुसार मूलाचार की मूल गाथाओं में किस गुणस्थानवर्ती जीव किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं, इसकी चर्चा उपलब्ध हो रही है। मूल गाथाओं में केवल बन्धनेवाली और नहीं बन्धनेवाली कर्मप्रकृतियों की संख्या का ही उल्लेख है, किन्तु वसुनन्दि ने अपनी टीका में इस बात का विस्तार से उल्लेख किया है कि बन्धने योग्य कर्मप्रकृतियां कौन-सी हैं और नहीं बन्धने योग्य कर्मप्रकृतियां कौन-सी
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