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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{189) हैं। किस गुणस्थान में किन-किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है और किन-किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है, इसकी विस्तृत चर्चा कर्मग्रन्थों में भी उपलब्ध है । वसुनन्दि का यह विवेचन भी उनके समान ही है, अतः हम यहाँ इस सम्बन्ध में अधिक विस्तृत चर्चा करना आवश्यक नहीं समझते हैं। फिर भी इस समस्त चर्चा से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि मूलाचार के कर्ता आचार्य वट्टकेर गुणस्थान सिद्धान्त की सूक्ष्मताओं से अवश्य परिचित रहे हैं। जहाँ तक मूलाचार के टीकाकार वसुनन्दि का प्रश्न , वे तो अपनी टीका में गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा के विभिन्न पक्षों की चर्चा कर रहे हैं। मूलाचार की अन्तिम गाथाओं की चर्चा में उन्होंने न केवल विभिन्न गुणस्थानों में किन-किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है और किन-किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है, इसकी चर्चा की है, अपितु किस गुणस्थान में किन कर्मप्रकृतियों का क्षय होता है और किस क्रम से होता है, इसकी भी विस्तृत चर्चा की है तथा यह भी बताया है कि सातवें गुणस्थान के अन्त में श्रेणी प्रारंभ करके जीव किस प्रकार कर्मो का क्षय करता हुआ मुक्ति को प्राप्त होता है । इसप्रकार आचार्य वट्टकेर विरचित मूलाचार की मूल गाथाओं में गुणस्थान का संक्षिप्त निर्देश प्राप्त होता है, किन्तु उसकी वसुनन्दि कृत टीका में उसका विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है, अतः मूल ग्रन्थकार और उसके टीकाकार दोनों ही गुणस्थान सिद्धान्त से परिचित रहे हैं और आवश्यकतानुसार उन्होंने अपने ग्रन्थ में अथवा उसकी टीका में गुणस्थानों का अवतरण भी किया है। आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में गुणस्थान की अवधारणा आचार्य कुन्दकुन्द दिगम्बर परम्परा के एक मूर्धन्य आचार्य है । उनके ग्रन्थों में आध्यात्मिक दृष्टि से तत्वों का गहन विश्लेषण हुआ है । यह सत्य है कि उन्होंने तत्व के शुद्ध स्वरूप पर विशेष बल दिया है । उनकी दृष्टि निश्चयनय प्रधान है, किन्तु उन्होंने व्यवहार की कहीं उपेक्षा नहीं की । वे आत्मा के शुद्ध स्वरूप पर इसीलिए विशेष बल देते हैं कि इसे जानकर साधक विभावदशा से मुक्त हो सके । उनकी रचनाओं में प्रवचनसार, पंचास्तिकायसार, समयसार, नियमसार और अष्टपाहुड प्रमुख है। इनके अतिरिक्त बारसअनुवेक्खा, दशभक्ति, रयणसार को भी आपकी रचनाएँ माना जाता है । यद्यपि इस सम्बन्ध में विद्वानों के विभिन्न मत है । कुछ विद्वानों ने तो अष्टपाहुड को भी कुन्दकुन्दकृत मानने में प्रश्नचिन्ह उपस्थित किए हैं; किन्तु हम यहाँ इन मतभेदों में उलझना नहीं चाहते, क्योंकि हमारा मुख्य प्रयोजन तो कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा की उपस्थिति को देखना ही है। जहाँ आचार्य कुन्दकुन्द के काल का प्रश्न है, यह भी विवादों के घेरे में है । कुन्दकुन्द के काल के सम्बन्ध में जो विभिन्न मत हैं, उनका संक्षिप्त उल्लेख प्रवचनसार की भूमिका में प्रो.ए.एन. उपाध्याय ने किया है । परम्परागत मान्यता के अनुसार उनका जन्म ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी के उनसाठवें वर्ष में हुआ और स्वर्गवास ८५ वर्ष की आयु में ईस्वी सन् ४४ में हुआ। प्रो. ए.सी. चक्रवर्ती ने पंचास्तिकाय की भूमिका में कुन्दकुन्द के ईस्वी पूर्व की परम्परागत तिथि का समर्थन किया है। पंडित जुगलकिशोरजी मुक्तार ने उनका जन्म ईस्वी सन् ८१ और स्वर्गवास ईस्वी सन् १६५ माना है । हार्नले एक अन्य पट्टावलि के उल्लेख के आधार पर उनका काल विक्रम संवत् १४६ तदनुसार ईस्वी सन् ६२ माना है । विद्वज्जन बोधक नामक पट्टावलि में उनका काल वीरनिर्वाण संवत् ७७० तदनुसार ईस्वी सन् २४३ ए.डी. उल्लेखित है । पंडित नाथुलालजी प्रेमी ने उन्हें ईस्वी सन् १६५ के बाद माना है, किन्तु किसी निश्चित तिथि का उल्लेख नहीं किया है। प्रो. पाठक ने अभिलेखों के आधार पर उन्हें शिवमृगेश वर्मन का समकालीन मानते हुए उनका काल ईस्वी सन् ५२८ के लगभग माना है । डॉ सागरमल जैन और मधुसूदन ढाकी ने भी इसी तिथि को प्रमाणित माना है । इस प्रकार विद्वानों ने कुन्दकुन्द का काल ईस्वी पूर्व प्रथम शती से लेकर ईसा की छठी शताब्दी तक माना है । परम्परावादी दिगम्बर विद्वान् इनका काल ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी मानते हैं, वहीं श्री मधुसूदन ढाकी ने इनका काल ईसा की छठी शताब्दी के आसपास सिद्ध किया है । डॉ. सागरमल जैन ने भी विशेषरूप से गुणस्थान सिद्धान्त के विकास के आधार पर इनका काल पांचवीं-छठी शताब्दी के लगभग निर्धारित किया है । यहाँ हम इस काल सम्बन्धी विवाद में भी विशेषरूप से उलझना नहीं चाहते हैं । यद्यपि हम यह अवश्य देखने का प्रयत्न करेंगे कि विद्वानों न सिद्धान्त के विकास का जो क्रम माना है Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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