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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........
उसमें आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की क्या स्थिति है ?
आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में हमें कहीं भी चौदह गुणस्थानों का सुव्यवस्थित व्याख्यात्मक उल्लेख प्राप्त नहीं होता है । मात्र गुणस्थानों से सम्बन्धित कुछ अवस्थाओं के उल्लेख प्राप्त होते हैं । इस आधार पर कुन्दकुन्द की स्थिति भी अर्द्धमागधी आगम साहित्य के समरूप ही दिखाई देती है । अनेक स्थलों पर जहाँ गुणस्थानों के नामों के समरूप जिन नामों या अवस्थाओं का उल्लेख है, वहाँ भी यह कहना अत्यन्त कठिन है कि यह उल्लेख गुणस्थान से सम्बन्धित है या नहीं ? मिथ्यादृष्टि २०३, सम्यग्दृष्टि२०४, असंयत२०५, प्रमत्त २०६, अप्रमत्त२०७, उपशान्तमोह ०८, क्षीणमोह २०६, सयोगी आदि गुणस्थानों के नामों के समरूप शब्द कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में उपलब्ध होते है, किन्तु इन शब्दों के साथ गुणस्थान शब्द के उल्लेख का अभाव होने से यह निर्णय करना कठिन है कि यहाँ आचार्य कुन्दकुन्द गुणस्थान सिद्धान्त की किसी अवस्था की चर्चा कर रहे हैं अथवा सामान्य रूप से ही इन अवस्थाओं मात्र का उल्लेख कर रहे है । इस आधार पर यदि देखें तो कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की स्थिति अर्द्धमागधी आगमों से भिन्न प्रतीत नहीं होती है । यह भी सत्य है कि कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में चौदह गुणस्थानों का क्रमशः एवं विवेचनात्मक कोई प्रतिपादन नहीं मिलता है, किन्तु इस आधार पर कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की कालिक स्थिति श्वेताम्बर आगम साहित्य के समरूप मानने में * कुछ कठिनाई है। उसका प्रमुख आधार यह है कि जहाँ अर्द्धमागधी आगम साहित्य में एक भी स्थान पर गुणस्थान शब्द का उल्लेख नहीं मिलता है, वहीं आचार्य कुन्दकुन्द ने अनेक स्थलों पर जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान का स्पष्टरूप उल्लेख किया है । इसी आधार पर डॉ. सागरमल जैन ने यह निष्कर्ष निकालने का प्रयत्न किया है कि आचार्य कुन्दकुन्द न केवल गुणस्थानों की अवधारणा से सुपरिचित थे; अपितु जीवस्थान, मार्गणास्थान, गुणस्थान की अवधारणा से ही नहीं बल्कि उनके पारस्परिक सम्बन्ध से भी सुपरिचित थे । गुणस्थानों का मार्गणास्थान और जीवस्थानों से किस प्रकार सहसम्बन्ध है, इसकी चर्चा हमें पूज्यपाद देवनन्दी की टीका सवार्थसिद्धि में तथा षट्खण्डागम में विस्तार से मिलती है । इसी आधार पर उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला है कि आचार्य कुन्दकुन्द षट्खण्डागम एवं पूज्यपाद की सवार्थसिद्धि टीका से या तो परवर्ती है या समकालीन है ।
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आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में गुणस्थान शब्द का उल्लेख समयसार और नियमसार में विशेषरूप से मिलता है । यहाँ हम उस सम्बन्ध में थोड़ी विस्तार से चर्चा करना चाहेंगे । समयसार की गाथा क्रमांक- ६८ में यह उल्लेखित है कि जो गुणस्थान है, वे मोहनीय कर्म के उदय से होते हैं । २" यह उल्लेख इस बात को सिद्ध करता है कि आचार्य कुन्दकुन्द न केवल गुणस्थान की अवधारणा से सुपरिचित थे, अपितु वे इस तथ्य से भी सहमत थे कि गुणस्थान की अवधारणा मोहनीय कर्म के उदय या क्षयोपशम पर आधारित है । समयसार की गाथा क्रमांक ५४-५५ में न केवल यह उल्लेख है कि गुणस्थान और जीवस्थान- ये जीव के स्वलक्षण नहीं है, अपितु यह भी कहा गया है कि ये पुद्गल द्रव्य का परिणाम है । २१२ आचार्य कुन्दकुन्द तो यहाँ तक भी कहते हैं
२०३ आ. कुन्दकुन्द विरचित समयसारः आत्म ख्याति, तात्पर्यवृति, आत्म ख्याति भाषा वचनिका इति टीकात्रयोपेतः - द्वितीय अधिकार, गाथा ८६ २०४ वहीं २/११०
२०४ प्रवचनसार, चारित्राधिकार ३, गाथा क्रमांक २१ ( कुन्दकुन्दाचार्य, परमश्रुत, प्रभावक मण्डल, अगास, संस्करण चतुर्थ - १६८४ )
२०६ समयसार - गाथा क्रमांक ६, प्रवचनस्तर - १, ज्ञानाधिकार गाथा क्रमांक- ६
२०७ समयसार - गाथा क्रमांक ६, / नियमसार, ग्यारहवाँ निश्चयपरमावश्यकाधिकार गाथा क्रमांक - १५८ ( कुन्दकुन्द, साहित्य प्रकाशन एवं प्रचार विभाग, जयपुर, संस्करण, पंचम - १६८४ )
२०८ पंचास्तिकाय संग्रह, गाथा क्रमांक ७० (कुन्दकुन्द, साहित्य प्रकाशन एवं प्रचार विभाग, जयपुर, पंचम संस्करण - १६६०)
२०६ समयसार गाथा क्रमांक - ३३ / पंचास्तिकाय संग्रह, गाथा क्रमांक- ७०
२१० समयसार, गाथा क्रमांक - ११०
२११ मोहणकम्मस्सुदया दु वाणिण्या जे इमे गुणट्ठाणा || २१२ णो द्विदिबन्धट्ठाणा जीवस्स ण संकिलेसठाणा वा ।
तृतीय अध्याय .......{190}
समयसार गाथा - ६८
व विसोहिद्वाणा णो संजमलद्धिट्ठाणा वा । वय जीवद्वाणा ण गुणट्ठाणा य अत्थि जीवस्स । जे दु एदे सव्वे पुग्गलदवस्स परिणामा ।। समयसार गाथा- ५५
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समयसार गाथा - ५४
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