________________
प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{191) कि ये गुणस्थान, जो जीव की विशुद्धि की अवस्था कहे जाते है, वे वस्तुतः इसी तथ्य के सूचक हैं कि जीव से पुद्गल द्रव्य का वियोग किस रूप में है । शुद्ध आत्म-स्वरूप के विवरण में गुणस्थान की चर्चा प्रासंगिक नहीं है, इसीलिए उन्होंने कहा है कि जीवस्थान और गुणस्थान पुद्गल द्रव्यों के ही परिणमन हैं । आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में, जीव के सन्दर्भ में, जीवस्थान और गुणस्थान का विधान और निषेध दोनों किया ; वहाँ वे नियमसार में आत्मा के शुद्ध स्वरूप का चिन्तन करते हुए स्पष्टरूप से कहते हैं कि मैं अर्थात् आत्मा जीवस्थान, गुणस्थान और मार्गणास्थान नहीं है । निश्चयनय की अपेक्षा से तो आत्मा इन तीनों की न तो कर्ता है और न करवाने वाला है और न अनुमन्ता है । वस्तुतः आचार्य कुन्दकुन्द की रुचि आत्मा के शुद्ध स्वरूप का विवेचन करने की रही है । उनकी दृष्टि में गुणस्थान, जीवस्थान और मार्गणास्थान ये सभी जीव की वैभाविक दशा के ही वर्णन करते हैं। यही कारण रहा है कि उन्होंने गुणस्थानों के सन्दर्भ में विशेष चर्चा नहीं की। आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में गुणस्थान सम्बन्धी विशेष विवरण न मिलने का कारण यह नहीं है कि वे गुणस्थान सिद्धान्त से अपरिचित थे, अपितु इसका कारण यह है कि वे गुणस्थान की अवधारणा को आत्मा की वैभाविक दशा से सम्बन्धित करते थे ; इसीलिए उन्होंने उनके विवेचन की उपेक्षा की । गुणस्थानों में यदि हम अन्तिम तीन गुणस्थानों को छोड़ दें, तो शेष सभी गुणस्थान किसी ने किसी रूप में आत्मा की विभावदशा का चित्रण करते हैं। यही कारण रहा होगा कि आचार्य कुन्दकुन्द ने गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन को अपने ग्रन्थों में अधिक महत्व नहीं दिया । आचार्य कुन्दकुन्द ने चाहे गुणस्थानों का विवरण प्रस्तुत नहीं किया हो, किन्तु वे गुणस्थानों से सुपरिचित थे उसका एक अन्य प्रमाण बोधपाहुड़ में मिलता है। बोधपाहुड़ की गाथा-३१ में वे लिखते हैं कि गुणस्थान, मार्गणा, पर्याप्ति, प्राण, जीवस्थान के आधार पर अर्हन्त भगवान की स्थापना करना चाहिए ।२१३ आगे वे लिखते हैं कि तेरहवें गणस्थान में योग सहित केवलज्ञानी अरहन्त कहे जाते हैं।२१४ आगे गाथा क्रमांक-३६ में कहा गया है कि पंचेन्द्रिय नामक जो चौदहवाँ जीवसमास है उसमें गुणों के समूह से युक्त होकर तेरहवें गुणस्थान में आरूढ़ अरहन्त भगवान होते हैं। यह सब इस तथ्य के प्रमाण है कि चाहे आचार्य कुन्दकुन्द ने गुणस्थानों का विशेष उल्लेख नहीं किया हो, किन्तु वे गुणस्थानों से और गुणस्थानों के जीवस्थान तथा मार्गणास्थान के सहसम्बन्ध से सुपरिचित थे।
___ यहाँ हम संक्षेप में यह चर्चा करना चाहेंगे कि आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में गुणस्थान के समरूप अवस्थाओं का उल्लेख कहाँ और किस रूप में है ? समयसार की गाथा क्रमांक-५५ और ६८ में गुणस्थान और जीवस्थान का मात्र नाम-निर्देश किया गया है और यह बताया गया है कि जीवस्थान और गुणस्थान आत्मा का स्वलक्षण नहीं है, वे पुद्गल द्रव्यों के परिणाम हैं तथा मोहनीय कर्म के उदय के आधार पर वर्णित किए जाते हैं । गुणस्थानों के नामों के समरूप जिन अवस्थाओं का उल्लेख है वे इस प्रकार से हैं। गाथा क्रमांक-८६ में मिथ्यादृष्टि का उल्लेख करते हुए यह कहा गया है कि आत्मभाव और पुद्गलभाव दोनों को एक ही मानने वाला मिथ्यादृष्टि होता है ।२१६ समयसार के गाथा क्रमांक-६ में यह बताया गया है कि निश्चयनय की अपेक्षा से तो आत्मा
२१३ गुणट्ठाणमग्गणेहिं य पज्जत्तीपाणजीवट्ठाणेहिं ।
ट्ठावण पंचविहेहिं पणयब्वा अरहपुरिसस्स ।। अष्टप्रामृत, चौथे बोधप्रामृत गाथा क्रमांक-३१
(कुन्दकुन्द परमश्रुत प्रभावक मण्डल, अगास) संस्करण वि.स. २०२६ २१४ तेरहमे गुणट्ठाणे सजोइकेवलिय होइ अरहंतो । चउतीस अइसयगुणा होति हु तस्सट्ठ पडिहारा ।
अष्टप्रामृत, चौथा बोधप्रामृत गाथा क्रमांक-३२ २१५ मणुयभवे पंचिदिय जीवट्ठाणेसु होइ चउदसमे। एदे गुणगणजुत्तो गुणमारूढो हवइ अरहो ।।
___अष्टप्रामृत, चौथा बोधपाहुड गाथा क्रमांक-३६ २१६ जम्हा दु अत्तभावं पुग्गलभावं च दोवि कुष्पंति । तेण दु मिच्छादिट्ठी दो किरियावादिणो हुँति ।।
समयसार, द्वितीयाधिकार, गाथा क्रमांक-८६
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org