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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{280) देशविरति और सर्वविरति ग्रहण करते समय अन्तर्मुहूर्त काल तक आत्मा के परिणाम विशुद्ध रहते हैं । उन विशुद्ध परिणामों के फलस्वरूप देशविरति और सर्वविरति के निमित्त से दूसरी और तीसरी गुणश्रेणी होती है। ज्ञातव्य है कि इन दोनों गुणश्रेणियों में
न्तर्मुहूर्त काल तक वर्धमान विशुद्ध आत्म-परिणामों के कारण गुणश्रेणी होती है। ये क्रमशः द्वितीय और तृतीय गणश्रेणी कही गई है । (४) चतुर्थ गुणश्रेणी तब होती है जब अप्रमत्त गुणस्थान में स्थित आत्मा अनन्तानुबन्धी कषाय की विसंयोजना करती है। (५) पाँचवीं गुणश्रेणी भी सप्तम गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी कषाय की विसंयोजना के पश्चात् जब आत्मा मिथ्यात्वमोह, मिश्रमोह और सम्यक्त्वमोह का क्षय करती है तब होती है । (६) षष्ठ गुणश्रेणी चारित्रमोह कर्म का उपशमन करते हुए अनिवृत्तिबादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती उपशमश्रेणी से आरोहण करने वाली आत्माओं को होती है । (७) सप्तम गुणश्रेणी उपशान्तमोह गुणस्थान में रहे हुए जीवात्मा के जब तक प्रवर्धमान विशुद्ध परिणाम होते हैं, तब तक होती है । (८) अष्टम गुणश्रेणी क्षपक श्रेणी से आरोहण करने वाली आत्मा को चारित्रमोह कर्म का क्षपण करते समय अनिवृत्तिबादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानों में होती है। (E) नवम गुणश्रेणी क्षीणमोह गुणस्थान में दर्शनावरणीय, ज्ञानावरणीय और अन्तराय कर्मों का क्षय करते समय क्षीणमोह नामक गुणस्थान में होती है । (१०) सयोगीकेवली गुणस्थान में जो गुणश्रेणी होती है, उसे सयोगीकेवली गुणश्रेणी कहते हैं। यह गुणश्रेणी दसवीं है । यद्यपि केवलज्ञान की उत्पत्ति के साथ सभी घाती कर्म निर्जरित हो जाते हैं; अतः सयोगीकेवली गुणस्थान में जो गुणश्रेणी की जाती है, वह अघाती कर्मों की विशेष रूप से वेदनीय कर्म की होती है । हमारी दृष्टि में यह गुणश्रेणी तब होती है, जब आत्मा केवली समुद्घात करती है और केवली समुद्घात करके वेदनीय और आयुष्य कर्म को समतुल्य बना देती है। (११) अयोगीकेवली गुणस्थान में ग्यारहवीं गुणश्रेणी होती है, क्योंकि इस गुणस्थान में आत्मा योग निरोध के माध्यम से अवशिष्ट चारों अघाती कर्मों को क्षय कर देती है ।
गुणश्रेणियों की इस चर्चा में यह ज्ञातव्य है कि कौन-सी आत्मा गुणश्रेणी करते समय शीर्ष भाग पर अवस्थित कर्मदलिको का उत्कृष्ट प्रदेशोदय करती है और कौन-सी आत्मा जघन्य प्रदेशोदय करती है ? इसके उत्तर में यह कहा गया है कि गुणश्रेणी करते समय गुणित कर्माश आत्मा अर्थात् वह आत्मा जिसके कर्मदलिक बहुत अधिक संख्या में रहे हैं, उत्कृष्ट अर्थात् सर्वाधिक प्रदेशोदय करती है। इसके विपरीत क्षपितकर्माश आत्मा जघन्य अर्थात् सबसे कम प्रदेशोदय करती है, क्योंकि उसके कर्मदलिक अत्यन्त अल्प मात्रा में ही शेष रहे हुए हैं । पंचसंग्रह के पंचमद्वार की अग्रिम गाथाओं में इस बात पर विस्तार से विचार किया गया है कि विभिन्न गुणश्रेणियों में किस प्रकार के कर्मों का और किस आत्मा को उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है, किस आत्मा को जघन्य प्रदेशोदय होता है । मूलगाथाओं की अपेक्षा ही पंचसंग्रह की मलधारी हेमचन्द्र की टीका में इस सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा की गई है, अतः हम यहाँ संकेत करके ही इस चर्चा को विराम देंगे।
पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ चौंतीसवीं और एक सौ पैंतीसवीं गाथाओं में विभिन्न गुणस्थानों में किन कर्मप्रकृतियों की सत्ता होती है, इसकी चर्चा की गई है। इसमें बताया गया है कि मिथ्यात्व, सास्वादन और सम्यग्मिथ्यात्व-इन तीन गुणस्थानों में, नियम से, मिथ्यात्व की सत्ता होती है। उसके पश्चात् अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरति, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय और उपशान्तमोह-इन आठ गुणस्थानों में मिथ्यात्व की सत्ता विकल्प से होती है, अर्थात् कभी होती है, कभी नहीं होती है । जो क्षपक श्रेणी से आरोहण करते हैं, उनमें आठवें गुणस्थान से आगे मिथ्यात्व की सत्ता नहीं होती है, किन्तु जो उपशमश्रेणी से आरोहण करते हैं, उनमें ग्यारहवें गुणस्थान तक मिथ्यात्व की सत्ता अवश्य ही होती है। सास्वादन और मिश्र गुणस्थान में मिश्रमोहनीय की सत्ता अवश्यमेव होती है, किन्तु आगे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थानों तक, नौ गुणस्थानों में मिश्रमोहनीय की सत्ता विकल्प से होती है; अर्थात् कभी होती है और कभी नहीं होती है । पुनः मध्यवर्ती आठ कषाय अर्थात् अप्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क और प्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क की सत्ता क्षपकश्रेणी से आरोहण करने वाले में अनिवृत्तिकरण नामक नवें गुणस्थान तक होती है और उससे आगे इनका क्षय या उच्छेद हो जाता है, किन्तु उपशमश्रेणी वाली आत्मा में इनकी सत्ता ग्यारहवें गुणस्थान तक बनी रहती है । स्थावरनामकर्म, सूक्ष्मनामकर्म, तिर्यंचगति,
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