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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{281) तियंचानुपूर्वी, आतपनामकर्म, जातिचतुष्क, साधारणनामकर्म, नरकगति, नरकानुपूर्वी, उद्योतनामकर्म-इन तेरह कर्मप्रकृतियों की सत्ता क्षपक श्रेणी से आरोहण करने वाली आत्मा में नवें गुणस्थान के द्वितीय भाग तक होती है, किन्तु उपशमश्रेणी से आरोहण करने वाली आत्मा में इनकी ग्यारहवें गुणस्थान तक भी सत्ता रहती है । जो साधक पुरुषवेद के उदय में श्रेणी प्रारम्भ करता है, वह अनिवृत्तिबादरसंपराय नामक नवें गुणस्थान में सर्वप्रथम सत्ता में रहे हुए नपुंसकवेद, स्त्रीवेद और हास्यषट्क का अनुक्रम से क्षय करता है और उसके पश्चात् अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान का एक समय न्यून दो आवलिका काल शेष रहने पर पुरुषवेद का क्षय करता है। जो साधक नपुंसकवेद के उदय में क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होता है, वह स्त्रीवेद और नपुंसकवेद दोनों का एक साथ ही क्षय करता है, किन्तु यह स्थिति भी क्षपक श्रेणी से आरोहण करने वाले जीवों के सम्बन्ध में ही समझना चाहिए। उपशमश्रेणी से आरोहण करने वाले जीवों में तो इनकी सत्ता उपशान्तमोह गुणस्थान तक रहती है। जो स्त्रीवेद के उदय में क्षपकश्रेणी पर आरोहण करते है, वे जीव प्रथम सत्ता में रहे नपुंसकवेद का क्षय करते हैं एवं उसके पश्चात् स्त्रीवेद का क्षय करते है और उसके पश्चात् हास्यषट्क तथा पुरुषवेद का एक ही साथ क्षय करते हैं । जब तक इनका क्षय नहीं होता है, तब तक इनकी सत्ता रहती है, किन्तु उपशमश्रेणी से आरोहण करने वाले में तो इनकी सत्ता उपशान्तमोह गुणस्थान तक रहती है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि उपशमश्रेणी से आरोहण करने वाले केवल उदय में रही हुई या उदय होने वाली कर्मप्रकृतियों के उदय को उपशान्त करते हैं, सत्ता में रही हुई कर्मप्रकृतियों का क्षय नहीं करते हैं।
सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थानवी जीव यदि क्षपकश्रेणी से आरोहण करते हैं, तो वे संज्वलन लोभ का सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के चरम समय में क्षय करते हैं, किन्तु जो उपशमश्रेणी से आरोहण करते हैं, उनमें तो संज्वलन लोभादि कर्मप्रकृतियों की सत्ता ग्यारहवें गुणस्थान तक बनी रहती है। जहाँ तक आहारक-सप्तक और तीर्थंकर-नामकर्म की सत्ता का प्रश्न है, सभी गुणस्थानवी जीवों में आहारक सप्तक की सत्ता विकल्प से होती है, अर्थात् कभी होती है और कभी नहीं होती है। यदि कोई जीव सातवें और आठवें गुणस्थान में आहारकनामकर्म का बन्ध करता है, तो ऊपर के गुणस्थानों में जाने पर सभी गुणस्थानों में उसकी सत्ता पम्भव हो सकती है।
जहाँ तक तीर्थकरनामकर्म की सत्ता का प्रश्न है, सास्वादन और मिश्र गुणस्थान को छोड़कर अन्य सभी गुणस्थानों में तीर्थकरनामकर्म के सत्ता विकल्प से सम्भव होती है। तीर्थंकरनामकर्म का बन्ध मिथ्यात्व गुणस्थान में नहीं होता है । इतना निश्चय है कि सास्वादन और मिश्र गुणस्थान में नियम से तीर्थकरनामकर्म की सत्ता नहीं होती है । मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में तीर्थंकरनामकर्म की सत्ता अन्तर्मुहूर्त मात्र सम्भव होती है, क्योंकि जिसने पूर्व में नरकायु का बन्ध कर दिया हो, वह नरक में उत्पन्न होते समय अन्तर्मुहूर्त के लिए मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में जाता है।
वेदनीय कर्म की कोई एक प्रकृति, उच्चगोत्र, नामकर्म की मृत्यु पर्यन्त या देहत्याग तक उदय में रहनेवाली सभी प्रकृतियां, मनुष्यायु, अयोगीकेवली गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त सत्ता में रहती है । शेष प्रकृतियों की सत्ता द्विचरमसमय पर्यन्त ही होती है । जो प्रकृतियाँ द्विचरमसमय पर्यन्त सत्ता में रहती हैं, वे निम्न हैं- वेदनीय, देवद्विक, औदारिक सप्तक, वैक्रिय सप्तक, आहारक सप्तक, तेजसकार्मण सप्तक, प्रत्येकनामकर्म, संस्थानषट्क, संघयणषट्क, वर्णादि वीश, विहायोगतिद्विक, अगुरुलघुनामकर्म, पराघात, उपघात, उच्छ्वास, स्थिरनामकर्म, अस्थिरनामकर्म, शुभनामकर्म, अशुभनामकर्म, सुभगनामकर्म, दुर्भगनामकर्म, सुस्वरनामकर्म, दुःस्वरनामकर्म, अनादेयनामकर्म, अपयशकीर्तिनामकर्म, मनुष्यानुपूर्वी, निर्माणनामकर्म, अपर्याप्तनामकर्म और नीचगोत्र - ये ८३ कर्मप्रकृतियाँ अयोगीकेवली गुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त सत्ता में हो सकती हैं, किन्तु द्विचरम समय अर्थात् चरम समय के दो समय पूर्व इन कर्मप्रकृतियों की सत्ता क्षय हो जाती है । इस प्रकार पंचसंग्रह के पंचम द्वार में, किस गुणस्थान में, किन कर्मप्रकृतियों की सत्ता रहती है और किन कर्मप्रकृतियों की सत्ता क्षय हो जाती है, इसका विस्तृत विवेचन हमें मिलता है।
पंचसंग्रह के पंचम द्वार की सोलहवीं गाथा में कहा गया है कि जो साधक चार बार मोहनीय कर्म का उपशम करके प्रयत्नवान
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