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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{282) होता हुआ अन्त में जब क्षपकश्रेणी से आरोहण करता है, तब सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के चरम समय में यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और सातावेदनीय के उत्कृष्ट प्रदेश सत्ता में रहते हैं, क्योंकि वह अशुभ प्रकृतियों के दलिकों को इन कर्मप्रकृतियों में संक्रमित कर देता है। कर्मदलिकों की सत्ता की चर्चा करते हुए १७६ वीं गाथा में यह भी कहा गया है कि अयोगीकेवली गुणस्थान में जिन कर्मप्रकृतियों की सत्ता होती है, उन सत्तावाली कर्मप्रकृतियों के कर्मस्पर्द्धक अयोगीकेवली गुणस्थान के काल के तुल्य स्पर्द्धकों से एक स्पर्द्धक न्यून होते हैं और जिन कर्मप्रकृतियों का उदय रहता है, उनके स्पर्द्धक अयोगीकेवली गुणस्थान के काल के स्पर्द्धकों के समतुल्य होते हैं । सत्तावाली कर्मप्रकृतियाँ द्विचरम समय तक रहती हैं और उदयवाली कर्मप्रकृतियाँ चरम समय तक रहती है, क्योंकि सत्ता में रही हुई कर्मप्रकृतियाँ एक समय पूर्व ही क्षय को प्राप्त हो जाती हैं । विभिन्न गुणस्थानों में योग :
___ गुणस्थान सिद्धान्त की विभिन्न द्वारों के माध्यम से विस्तृत चर्चा पंचसंग्रह नामक ग्रन्थ में उपलब्ध होती है। अभिधान राजेन्द्र कोष में भी जीवस्थानों और गुणस्थानों की चर्चा करते हुए, परमपूज्य श्री राजेन्द्रसूरिजी ने पंचसंग्रह की अनेक गाथाओं को उद्धृत किया है। यहाँ हम पंचसंग्रह की किन-किन गाथाओं में गुणस्थान की अवधारणा का किस रूप में प्रतिपादन किया गया है, इसका विवेचन करेंगे। पंचसंग्रह के प्रथम द्वार की गाथा क्रमांक-४ में किस गुणस्थान में कितने योग सम्भव है, इसकी चर्चा की गई है।
जैन-दर्शन में मन-वचन और काया की प्रवृत्तियों को योग कहा गया है, अतः मूल में तो योग तीन ही होते हैं - मनोयोग, वचनयोग और काययोग । पुनः मनोयोग के चार, वचनयोग के चार और काययोग के सात-ऐसे पन्द्रह भेद किए गए हैं,जो निम्न प्रकार से हैं - (१) सत्य मनोयोग (२) असत्य मनोयोग (३) सत्यासत्य (मिश्र) मनोयोग (४) असत्य अमृषा मनोयोग (५) सत्य वचनयोग (६) असत्य वचनयोग (७) सत्यासत्य (मिश्र) वचनयोग (८) असत्य-अमृषा वचनयोग (E) औदारिक काययोग (१०)
औदारिक मिश्र काययोग (११) वैक्रिय काययोग (१२) वैक्रिय मिश्र काययोग (१३) आहारक काययोग (१४) आहारक मिश्र काययोग (१५) कार्मण काययोग । यहाँ सर्वप्रथम यह समझ लेना चाहिए कि अयोगीकेवली गुणस्थान को छोड़कर शेष सभी गुणस्थानों में योग संभावनाएँ रही हुई हैं । आगे हम यह देखेंगे कि किस गुणस्थान में कितने योग सम्भव हो सकते हैं। पंचसंग्रह के प्रथम द्वार के गाथा क्रमांक -१६,१७
और १८ में हमें इस सम्बन्ध में चर्चा उपलब्ध होती है कि किस गुणस्थान में कितने योग होते हैं ? मिथ्यात्व गुणस्थान, सास्वादन गुणस्थान और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान इन तीनों गुणस्थानों में आहारक द्विक अर्थात् आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग- इन दो योगों को छोड़कर शेष सभी तेरह योग पाए जाते हैं। मिथ्यात्व गुणस्थान में पूर्वो के ज्ञान का अभाव होता है और पूर्वो के ज्ञान के अभाव में आहारक द्विक काययोग सम्भव नहीं है, अतः इन तीनों गुणस्थानों में तेरह योग ही सम्भव होते हैं। यह तेरह की संख्या संभावना की अपेक्षा से ही समझना चाहिए। एक साथ और एक व्यक्ति में तो इससे कम योग ही होते हैं।
मिश्र गुणस्थान में चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिक काययोग तथा वैक्रिय काययोग-ऐसे कुल दस योग सम्भव होते हैं। मिश्र गुणस्थान की संभावना नारकी, तिर्यंच, मनुष्य और देव चारों गतियों में होती है। यदि देव और नारक गति में हो, तो वैक्रिय काययोग होगा और मनुष्य तथा तिर्यंच गति में हो, तो औदारिक काययोग होगा । शेष निम्न पांच योग इस गुणस्थान में सम्भव नहीं होते हैं - आहारक काययोग, आहारक मिश्र काययोग, कार्मण काययोग, औदारिक मिश्र काययोग, एवं वैक्रिय मिश्र काययोग । चूंकि आहारक द्विक केवल छठे गुणस्थान में ही सम्भव होता है और कार्मण काययोग, औदारिक मिश्र काययोग, वैक्रिय मिश्र काययोग-ये तीन काययोग विग्रहगति और अपर्याप्त अवस्था में ही सम्भव होते हैं । मिश्र गुणस्थान में मृत्यु नहीं होती है, अतः इस गुणस्थान में विग्रहगति और अपर्याप्त अवस्था भी सम्भव नहीं है। इस गणस्थान में संभावना की अपेक्षा से दस योग ही सम्भव हैं । पांचवें देशविरति गुणस्थान में सामान्यतया चार मनोयोग, चार वचनयोग और औदारिक काययोग-ये नौ योग सामान्यतया पाए जाते हैं, किन्तु वैक्रिय लब्धि वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य वैक्रिय शरीर की रचना कर सकते हैं, अतः
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