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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{283} प्रारम्भ में वैक्रिय मिश्र और बाद में वैक्रिय काययोग सम्भव हो सकते हैं। इसप्रकार पांचवें देशविरति गुणस्थान में कुल ग्यारह योग सम्भव होते हैं। आहारक द्विक, औदारिक मिश्र काययोग और कार्मण काययोग तो इस गुणस्थान में सम्भव नहीं होते हैं, चूंकि सर्वविरति या देशविरति मृत्यु के बाद सम्भव नहीं होती है, अतः इस अवस्था में उपर्युक्त ग्यारह योग की सम्भावना है। छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान में आहारक द्विक की सम्भावना होने से पूर्वोक्त ग्यारह के साथ कुल तेरह योग सम्भव होते हैं। कार्मण काययोग और औदारिक मिश्र काययोग अपर्याप्त अवस्था में ही सम्भव होते हैं। मृत्यु के पश्चात् संयम नहीं रहता है, अतः वे दोनों योग सम्भव नहीं होने से कुल तेरह योग सम्भव होते हैं। अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव आहारक शरीर और वैक्रिय शरीर बनाने का प्रयत्न नहीं करता है, अतः उसमें पूर्वोक्त तेरह योगों में से वैक्रिय मिश्र और आहारक मिश्र-दो कम करने पर कुल ग्यारह योग ही पाए जाते हैं। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि यदि मुनि अपनी वैक्रिय-आहारक आदि लब्धियों का उपयोग करे, तो प्रमत्त ही कहलाता है, अप्रमत्त नहीं । अतः वैक्रिय मिश्र और आहारक मिश्र ही इस गुणस्थान में असम्भव होते हैं, किन्तु आहारक काययोग और वैक्रिय काययोग सम्भव है, क्योंकि लब्धि का उपयोग करने के पश्चात् पुनः अप्रमत्त अवस्था में आ सकता है। कार्मण काययोग और औदारिक मिश्र काययोग सम्भव नहीं होते हैं, क्योंकि इसका सम्बन्ध मृत्यु के पश्चात् अपर्याप्त अवस्था से है और अपर्याप्त अवस्था में सातवाँ गुणस्थान सम्भव है ही नहीं । अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्तमोह और क्षीणमोह गुणस्थान इन पांच गुणस्थानों में चार मनोयोग, चार वचनयोग और औदारिक काययोग-ऐसे नौ योग ही सम्भव होते हैं । यद्यपि यह एक विचारणीय प्रश्न है कि ये गुणस्थान आत्मविशुद्धि के सूचक है, अतः इन गुणस्थानों में असत्य मनोयोग, असत्य वचनयोग, मिश्र मनोयोग, मिश्र वचनयोग कैसे सम्भव होगा? हमारी दृष्टि में यहाँ केवल सत्यमनोयोग, असत्य अमृषा मनोयोग, सत्य वचनयोग, असत्य-अमृषा वचनयोग तो सम्भव हो सकते हैं । असत्य और मिश्र मनोयोग एवं असत्य और मिश्र वचनयोग कैसे सम्भव नहीं होगा? तत्व केवली गम्य है। सयोगीकेवली गुणस्थान में सत्य मनोयोग, असत्य अमृषा मनोयोग, सत्य वचनयोग, असत्य अमृषा वचनयोग, औदारिक काययोग, औदारिक मिश्र काययोग और कार्मण काययोग-ऐसे कुल सात योग सम्भव होते हैं। इनमें भी कार्मण काययोग और औदारिक मिश्र काययोग-ये दो काययोग केवली समुद्घात की अवस्था में ही सम्भव होते हैं । अतः इन सात योगों की संभावना भी केवली समुद्घात की दृष्टि से समझना चाहिए । सामान्य अवस्था में तो पांच ही योग होते हैं । दोनों मनोयोग मनः पर्यवज्ञानी और अनुत्तर विमानवासी देवों के मन में उठी शंकाओं के समाधान की दृष्टि से और दोनों वचनयोग धर्म की देशना की दृष्टि से सम्भव माने गए हैं। अन्तिम अयोगीकेवली गुणस्थान में योग का पूर्णतया अभाव होता है। विभिन्न गुणस्थानों में उपयोग : पंचसंग्रह में प्रथमद्वार की उन्नीसवीं एवं बीसवीं गाथा में चौदह गुणस्थानों में बारह उपयोग का अवतरण किया गया है। उपयोग बारह प्रकार के हैं- (१) मति-अज्ञान (२) श्रुत-अज्ञान (३) विभंगज्ञान (४) मतिज्ञान (५) श्रुतज्ञान (६) अवधिज्ञान (७) मनःपर्यवज्ञान (८) केवलज्ञान (६) चक्षुदर्शन (१०) अचक्षुदर्शन (११) अवधिदर्शन और (१२) केवलदर्शन। मिथ्यात्व गुणस्थान और सास्वादन गुणस्थान में निम्न पांच उपयोग होते हैं। मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान, विभंगज्ञान, चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन। इन गुणस्थानों में संयम और क्षायिकभाव न होने से मतिज्ञानादि शेष उपयोग नहीं होते हैं । मिश्र गुणस्थान में छः उपयोग होते हैं । इस गुणस्थानवी जीवों में सम्यक् और मिथ्या- इन दोनों दृष्टियों की मिश्र अवस्था होती है । अतः इस गुणस्थान में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मत्यज्ञान-श्रुताज्ञान, विभंग ज्ञान, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन-ये उपयोग हो सकते हैं, ऐसा आगमिक परम्परा मानती है । कर्मग्रन्थकार उसे स्वीकार नहीं करते हैं, अतः उनके अनुसार छः उपयोग होते हैं; अवधिज्ञान, विभंगज्ञान और अवधिदर्शन ये तीन उपयोग नहीं होते हैं । अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान और देशविरति गुणस्थान में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन-ये छः उपयोग होते हैं । सम्यक्त्व होने से अज्ञान नहीं होता है तथा सर्वविरति संयम का अभाव होने से मनःपर्यवज्ञान Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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