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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{284} नहीं होता है । ज्ञानावरणीयादि कर्म का पूर्णतः क्षय नहीं होने से केवलज्ञान और केवलदर्शन नहीं होता है । प्रमत्तसंयत गुणस्थान से क्षीणमोह गुणस्थान तक के सात गुणस्थानों में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और मनःपर्यवज्ञान-ऐसे सात उपयोग हो सकते हैं, परंतु ज्ञानावरणीयादि के पूर्णतः क्षय नहीं होने से केवलज्ञान और केवलदर्शन नहीं होते हैं। सयोगीकेवली और अयोगीकेवली-इन दोनों गुणस्थानों में मात्र केवलज्ञान और केवलदर्शन ही होते हैं,शेष उपयोग सम्भव नहीं होते हैं। गति मार्गणा में गुणस्थान : पंचसंग्रह के प्रथम द्वार की सत्ताईसवीं गाथा में गतियों एवं जातियों के आधार पर गुणस्थानों की चर्चा हुई है। जैनदर्शन में गतियाँ चार मानी गई हैं- नारकगति, तिथंचगति, मनुष्यगति और देवगति। इन चारों गतियों में गुणस्थानों की चर्चा करते हुए कहा गया है कि देवगति और नारकगति- इन दो गतियों में अधिकतम प्रथम के चार गुणस्थान अर्थात् मिथ्यात्व गुणस्थान, सास्वादन गुणस्थान, सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र) गुणस्थान और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान सम्भव होते हैं। देवता और नारक दोनों ही भोग योनियाँ हैं, अतः वहाँ व्रत-प्रत्याख्यान आदि सम्भव नहीं होते हैं, इसीलिए चतुर्थ गुणस्थान के आगे किसी भी गुणस्थान की वहाँ संभावना नहीं है। तिर्यंचगति में विशेष रूप से संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच की अपेक्षा से प्रथम के पाँच गुणस्थान सम्भव हैं। चूंकि जैन दर्शन में विवेकी पशुओं में देशविरति की संभावना मानी है, अतः उनमें मिथ्यात्व गुणस्थान, सास्वादन गुणस्थान, सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान, (मिश्र) अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान और देशविरति गुणस्थान- ऐसे पाँच गुणस्थान सम्भव हैं। जहाँ तक मनुष्यगति का प्रश्न है, मनुष्य गति में चौदह ही गुणस्थान सम्भव हैं । जैनदर्शन मुक्ति की संभावना केवल मनुष्यगति में ही स्वीकार करता है, अतः आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से मनुष्य में चौदह ही गुणस्थान हो सकते हैं । इसप्रकार गति मार्गणा की अपेक्षा से नारक और देवता में चार गुणस्थान एवं तिर्यंचगति में पाँच गुणस्थान, और मनुष्य में चौदह गुणस्थान पाए जाते हैं। पंचसंग्रह की टीका में यह भी स्पष्ट किया गया है कि भोगभूमि के युगलिक मनुष्यों और तिर्यंचों में चार ही गुणस्थान सम्भव होते हैं । उसमें भी जो संख्यात वर्ष की आयुवाले तिर्यच होते हैं, उनमें क्षायिक सम्यक्त्व को छोड़कर, औपशमिक या क्षायोपशमिक-दो ही सम्यक्त्व सम्भव हैं । शेष में औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक; तीनों ही सम्यक्त्व सम्भव हो सकते जाति मार्गणा में गुणस्थान : __पंचसंग्रह के प्रथम द्वार की सत्ताईसवीं गाथा में जातियों की अपेक्षा से भी गुणस्थान की चर्चा हुई है। जैनदर्शन में जातियाँ पाँच मानी गई हैं - एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय को विकलेन्द्रिय कहा गया है । यहाँ बताया गया है कि एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय अर्थात् द्वीन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक में, प्रथम के दो गुणस्थान अर्थात् मिथ्यादृष्टि और सास्वादन गुणस्थान ही सम्भव होते हैं । सास्वादन गुणस्थान भी अपर्याप्त अवस्था में ही सम्भव होता है। पर्याप्त अवस्था में तो मात्र मिथ्यात्व गुणस्थान ही रहता है। पंचेन्द्रिय में मनुष्य का भी समावेश होता है, अतः उनकी अपेक्षा से यह कहा गया है कि पंचेन्द्रियों में चौदह ही गुणस्थान सम्भव होते हैं, किन्तु यह बात कर्मभूमि के संज्ञी पर्याप्त मनुष्य की दृष्टि से ही समझना चाहिए, शेष पंचेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा से नहीं । वेद मार्गणा में गुणस्थान : जैनदर्शन में वेद शब्द का प्रयोग कामवासना के अर्थ में हुआ है। इस आधार पर वेद तीन माने गए हैं- स्त्रीवेद, पुरुषवेद Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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