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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{285)
और नपुंसक वेद । वेद मार्गणा की अपेक्षा से पंचसंग्रह के प्रथम द्वार की उनतीसवीं गाथा में कहा गया है कि तीनों वेदों में प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर नवें अनिवृत्तिबादर सम्पराय गुणस्थान तक के सभी नौ गुणस्थान सम्भव होते हैं। शेष दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान से लेकर चौदहवें अयोगीकेवली गुणस्थान तक वेद या कामवासना का अभाव माना गया है। यहाँ यह समझना आवश्यक है कि जैन परम्परा में वेद और लिंग दोनों को अलग-अलग माना गया है। कामवासना को वेद और यौन अंगों की शारीरिक संरचना को लिंग कहा गया है । लिंग की अपेक्षा से स्त्री, पुरुष और नपुंसक-तीनों लिंगों में सभी गुणस्थानों की संभावना मानी गई है । यद्यपि कुछ जैनाचार्यों ने विशेष रूप से दिगम्बर जैनाचार्यों ने वेद के भी द्रव्यवेद और भाववेद-ऐसे दो विभाग किए हैं। यहाँ द्रव्यवेद, लिंग या शारीरिक रचना ही है। इसी आधार पर पंचसंग्रह के गुजराती अनुवादक पंडित हीरालाल देवचंद वढवाण वालों ने टिप्पण में यह प्रश्न उठाया है कि तीनों वेदों में जो नौ गुणस्थानों की संभावना बताई गई है, वह द्रव्यवेद के आश्रय से या भाववेद के आश्रय से है ? उत्तर में वे लिखते हैं कि यह कथन द्रव्यवेद के आश्रय से नहीं है, क्योंकि द्रव्यवेद में तो इसके ऊपर के गुणस्थान भी सम्भव होते हैं। यदि हम यह माने कि यह भाववेद की अपेक्षा से कही गई है, तो प्रश्न यह उठता है कि भाववेद अर्थात् कामवासना बनी रहने पर सर्वविरति चारित्र कैसे सम्भव हो सकता है ? इसके उत्तर में पंडितजी का कहना यह है कि वेद ये देशघाती कषायों के उदय से होते हैं । देशघाती नोकषाय सर्वघाती कषायों के क्षयोपशम से प्राप्त सर्वविरति चारित्र को नष्ट करने में समर्थ नहीं है। चारित्र का हनन सर्वघाती कषायों के उदय से होता है । पुनः वेद (कामवासना) के तीव्र-मन्द आदि अनेक भेद होते हैं । ऊपर के गुणस्थानों में अत्यन्त मन्द कामवासना होने से वह चारित्र की बाधक नहीं होती है। जिस प्रकार पित्त आदि दोष सभी जीवों में होते हैं, किन्तु जब तक वे तीव्र नहीं होते, तब तक बाधक नहीं होते हैं । इसीप्रकार सर्वविरति आदि ऊपर के गुणस्थानों में वेद (कामवासना) अत्यन्त मन्द होने से वह चारित्र का घात नहीं करते हैं । कषाय मार्गणा में गुणस्थान :
पंचसंग्रह के प्रथम द्वार की उपर्युक्त उनतीसवीं गाथा में कषायों की अपेक्षा गुणस्थानों की चर्चा की गई है। कषाय चार हैं - क्रोध, मान, माया और लोभ। सामान्य अपेक्षा से क्रोध, मान और माया- इन तीन कषायों में प्रथम गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादर सम्पराय तक नौ गुणस्थान सम्भव होते हैं, किन्तु लोभ कषाय में प्रथम गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय तक दसों गुणस्थान सम्भव हैं। इससे आगे के गुणस्थानों में कषाय का उदय नहीं होता है।
ज्ञातव्य है कि यहाँ कषायों की जो बात कही गई है, वह सामान्य रूप से ही कही गई है। वैसे जैनदर्शन में प्रत्येक कषाय के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानीय, प्रत्याख्यानीय, संज्वलन- ऐसे चार भेद किए गए हैं। इस अपेक्षा से यदि विचार करना हो, तो अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क के उदय में प्रथम और द्वितीय, दो गुणस्थान ही सम्भव होते हैं। अनन्तानुबन्धी कषाय का उपशम या क्षय होने पर अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान होता है। अप्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क के उदय का विच्छेद होने पर देशविरति गणस्थान सम्भव होता है। प्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क के उदय-विच्छेद होने पर ही सर्वविरति नामक छठा गुणस्थान सम्भव होता है, अतः यह माना जा सकता है कि छठे गुणस्थान से लेकर नवें गुणस्थान तक केवल संज्वलन कषाय चतुष्क का उदय रहता है, जबकि दसवें सूक्ष्मसंपराय नामक गुणस्थान में मात्र सूक्ष्म लोभ का ही उदय रहता है। सूक्ष्म लोभ का उदय-विच्छेद अर्थात् उपशम या क्षय होने पर साधक ग्यारहवें उपशान्तकषाय या बारहवें क्षीणकषाय गुणस्थान में आरोहण कर जाता है। कषायों की अपेक्षा से गुणस्थानों की यह व्यवस्था है। क्षीणमोह, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली- इन तीन गुणस्थानों में कषायों का सर्वथा अभाव होता है। लेश्या मार्गणा में गुणस्थान :
पंचसंग्रह के प्रथम द्वार की उनतीसवीं एवं तीसवीं गाथाओं में लेश्या मार्गणा की अपेक्षा से गुणस्थानों की चर्चा की गई है । जैनदर्शन में प्रशस्त और अप्रशस्त मनोभावों को लेश्या कहा गया है। इसमें लेश्या छः हैं । कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत
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