SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 334
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{286} लेश्या, तेजो लेश्या, पद्म लेश्या और शुक्ल लेश्या । कृष्ण, नील और कापोत- ये तीन लेश्याएँ अशुभ या अप्रशस्त हैं तथा तेजो, पद्म और शुक्ल - ये तीन लेश्याएँ शुभ या प्रशस्त हैं । यहाँ यह कहा गया है कि प्रथम से लेकर चतुर्थ अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक सभी छः लेश्याओं की संभावना है । देशविरति गुणस्थान, प्रमत्तसंयत गुणस्थान और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान-इन तीन गुणस्थानों में तेजो, पद्म, शुक्ल-ये तीन शुभ लेश्याएँ ही होती हैं । आगे अपूर्वकरण से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक मात्र शुक्ल लेश्या ही होती है। अयोगीकेवली गुणस्थान में कोई भी लेश्या नहीं होती है। लेश्या मार्गणा के सम्बन्ध में यह जानना अपेक्षित है कि सम्यक्त्व, देशविरति और सर्वविरति-इन तीन गुणस्थानों में प्रवेश के समय तो तीनों शुभ लेश्याएँ होती हैं, किन्तु उसके पश्चात् लेश्याओं में परिवर्तन हो सकता है। उस अपेक्षा से देशविरति और सर्वविरति गुणस्थानों में सभी छः लेश्याओं की संभावना स्वीकार की गई हैं । भव्य मार्गणा में गुणस्थान : जैनदर्शन में पारिणामिक भावों की चर्चा करते हुए भव्यत्व और अभव्यत्व को पारिणामिक भाव कहा गया है। जिन जीवों में स्वाभाविक रूप से मोक्ष जाने की क्षमता होती है, वे भव्य कहे जाते हैं और जिन जीवों में मोक्ष जाने की क्षमता नहीं होती है, वे अभव्य कहे जाते हैं । पंचसंग्रह के प्रथम द्वार की इकतीसवीं गाथा में बताया गया है कि अभव्य जीवों को मात्र मिथ्यात्व गुणस्थान होता है, जबकि भव्य जीवों में चौदह ही गुणस्थान सम्भव होते हैं । अभव्य जीव सर्वकाल में मिथ्यात्व गुणस्थान में ही पाए जाते हैं, जबकि भव्य जीव मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक किसी भी गुणस्थान में पाए जाते हैं । संज्ञी मार्गणा में गुणस्थान : जैनदर्शन में संज्ञी शब्द का अर्थ केवल इतना नहीं हैं कि जिसमें कोई भी संज्ञा पाई जाए, वह संज्ञी है। यहाँ संज्ञी से तात्पर्य विवेकशील मन से है। असंज्ञी जीवों में प्रथम के दो गुणस्थान सम्भव हो सकते हैं, जबकि संज्ञी जीवों में, प्रथम से लेकर क्षीणकषाय तक, बारह गुणस्थान सम्भव होते हैं। केवली को संज्ञी और असंज्ञी वर्ग से ऊपर माना गया है। इसी कारण संज्ञी जीवों में प्रथम से लेकर बारहवें तक बारह गुणस्थान पाए जाते हैं। तेरहवें सयोगीकेवली और चौदहवें अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव न संज्ञी होते हैं और न असंज्ञी । इस विषय में पंचसंग्रह के प्रथम द्वार की गाथा क्रमांक इकतीस में विवेचन है। सम्यक्व मार्गणा में गुणस्थान :___सामान्यतया दृष्टिकोण की विशुद्धता को सम्यक्त्व कहा गया है। अपेक्षा भेद से नवतत्व के सम्यक् श्रद्धान को अथवा देव-गुरु-धर्म के प्रति सम्यक् श्रद्धान को भी सम्यक्त्व कहा गया है । सम्यक्त्व मार्गणा में पहला और तीसरा गुणस्थान छोड़कर शेष सभी गणस्थान सम्भव होते हैं। मिश्र सम्यक्त्व मार्गणा में मात्र एक मिश्र गणस्थान होता है । मिथ्यात्व मार्गणा में भी मात्र एक प्रथम गुणस्थान होता है। सम्यक्त्व मार्गणा को आगे स्पष्ट करते हुए पंचसंग्रह के प्रथम द्वार की बत्तीसवीं गाथा में यह बताया गया है कि अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरति, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान-इन चारों गुणस्थानों में वेदक सम्यक्त्व सम्भव होता है। पुनः अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थान तक के आठ गुणस्थानों में उपशम सम्यक्त्व की भी संभावना होती है। विशेष रूप से जो साधक उपशमश्रेणी से यात्रा करते हैं, उनमें इन आठ गुणस्थानों में उपशम सम्यक्त्व की संभावना समझना चाहिए। पुनः अविरतसम्यग्दृष्टि से प्रारम्भ करके अयोगीकेवली तक के ग्यारह गुणस्थानों में क्षायिक सम्यक्त्व होता है। मिथ्यात्व गुणस्थान, सास्वादन गुणस्थान और मिश्र गुणस्थानों में अपने-अपने नाम के अनुरूप मिथ्यात्व, सास्वादन सम्यक्त्व और मिश्र सम्यक्त्व होते हैं। आहार मार्गणा में गुणस्थान : आहार मार्गणा की अपेक्षा से जीवों के दो विभाग किए गए हैं। जो आहार ग्रहण करते हैं, वे आहारक कहलाते है और जो Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy