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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... पंचम अध्याय........{287} किसी भी प्रकार का आहार ग्रहण नहीं करते, वे अनाहारक कहलाते है। पंचसंग्रह के प्रथम द्वार की तैंतीसवीं गाथा में यह बताया गया है कि आहारक मार्गणा में, प्रथम गुणस्थान से लेकर तेरहवें सयोगीकेवली गुणस्थान तक, सभी तेरह गुणस्थान सम्भव होते हैं। दसरे शब्दों में आहारक जीवों में तेरह गणस्थानों की संभावना है। इस गाथा में आगे यह भी बताया गया है कि अनाहारक जीवों में पाँच गुणस्थान सम्भव होते हैं। टीका में इन पाँच गुणस्थानों को स्पष्ट करते हुए बताया गया है कि अनाहारक अवस्था में मिथ्यात्व, सास्वादन, अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, सयोगीकेवली गुणस्थान और अयोगीकेवली गुणस्थान- ये पाँच गुणस्थान सम्भव होते हैं। इनमें मिथ्यात्व गणस्थान, सास्वादन और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान अनाहारक दशा में जब इन गुणस्थानों से युक्त जीव अपने औदारिक या वैक्रिय शरीर का परित्याग करके विग्रह गति करता हुआ बीच के समय में अनाहारक होता है। सयोगीकेवली जब केवली समुद्घात करते हैं, उसके बीच के समय में अनाहारक दशा में रहते हैं। अयोगीकेवली जब सूक्ष्म काययोग का भी निरोध कर लेते है, तब वे अनाहारक अवस्था को प्राप्त होते हैं । गुणस्थानों में जीवस्थान ___ पंचसंग्रह के प्रथम द्वार की अट्ठाइसवीं गाथा में जीवस्थानों के सन्दर्भ में गुणस्थानों का विवेचन किया गया है। उसमें बताया गया है कि मिथ्यादष्टि गणस्थान सभी चौदह जीवस्थानों में होता है। सास्वादन गुणस्थान अग्निकाय, वायकाय तथा सूक्ष्मनामकर्म के उदयवाले अपर्याप्तनामकर्म के साधारणनामकर्म के उदय वाले जीवों को छोड़कर के शेष सभी लब्धि पर्याप्त किन्तु करण अपर्याप्त सभी जीवस्थानों में सम्भव होता है। संज्ञी पर्याप्त और संज्ञी अपर्याप्त जीवों में अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान सम्भव होता है। शेष तीसरा सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान तथा पंचम देशविरति गुणस्थान से लेकर चौदहवें अयोगीकेवली गुणस्थान तक दस गणस्थान - ऐसे कल ग्यारह गुणस्थान संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में ही सम्भव होते हैं । विभिन्न गुणस्थानों में जीवों की संख्या : पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की नवीं गाथा की टीका में विभिन्न गुणस्थानों में जीवों की संख्या कितनी होती है, इसका विचार किया है। उसमें कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव अनन्त है। इस अनन्त की संख्या को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार लोकाकाश में प्रदेश अनन्त है, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव भी अनन्त है। पुनः मिथ्यादृष्टि जीवों में केवल निगोद में ही अनन्त जीव है और वे सभी मिथ्यादृष्टि हैं। अतः मिथ्यादृष्टि जीवों की संख्या अनन्त कही गई है। उसके पश्चात् सास्वादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरतसम्यग्दृष्टि- इन चार गुणस्थानवी जीवों की संख्या क्षेत्र पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समान बताई गई हैं। क्षेत्र पल्योपम के असंख्यातवें भाग में जितने प्रदेश होते हैं, उतनी इन चार गुणस्थानवी जीवों की संख्या समझनी चाहिए। सामान्य रूप से इन चार गुणस्थानवी जीवों की संख्या तो असंख्यात कही जाती हैं। इस असंख्यात का अर्थ समझाने के लिए जहाँ क्षेत्र पल्योपम के असंख्यातवें भाग के आकाश प्रदेशों से इसकी तुलना बताई गई है, वहीं अप्रमत्तसंयत से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक के गुणस्थानों में जीवों की संख्या संख्यात या परिमित कही गई है। यहाँ पर ज्ञातव्य है कि असंख्यात और संख्यात दोनों ही परिमित होते हैं, फिर भी असंख्यात ऐसा परिमित है, जिसकी गणना किसी भी स्थिति में सम्भव नहीं हैं, जबकि संख्यात ऐसा परिमित है, जिसकी गणना सम्भव होती है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक अधिकतम संख्या सहस्त्र-कोटि पृथकत्व अर्थात् दो हजार करोड़ से नौ हजार करोड़ मानी गई है। इसका स्पष्टीकरण पंच संग्रह के ही द्वितीय द्वार की बाईसवीं गाथा में किया गया है। पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की गाथा क्रमांक बाईस में पुनः गुणस्थानों की अपेक्षा जीवों की संख्या का विचार करते हुए कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में जीवों की संख्या अनन्त होती है। सास्वादन गुणस्थान, मिश्र गुणस्थान, अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान और देशविरतिसम्यग्दृष्टि गुणस्थान-इन चार गुणस्थानों में जीवों की संख्या असंख्यात होती है, किन्तु प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर आगे के सभी गुणस्थानों की संख्या सहस्त्र कोटि पृथकत्व अर्थात् अधिकतम नौ हजार करोड़ और न्यूनतम Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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