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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ पंचम अध्याय.......{288} दो हजार करोड़ होती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि इस गाथा में पूर्व में, गुणस्थान के सन्दर्भ में, जो जीवों की संख्या बताई गई थी; उसे अति संक्षिप्त करने का प्रयास किया गया है । विभिन्न गुणस्थानों में क्षेत्र स्पर्शना : लोक में व्यापकता की अपेक्षा से चर्चा करते हुए पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की छब्बीसवीं गाथा में कहा गया है कि सास्वादन से लेकर अयोगी केवली गुणस्थान तक के जीव, लोक के असंख्यातवें भाग (परिमाण) क्षेत्र में ही निवास करते हैं, किन्तु मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव सम्पूर्ण लोक में व्याप्त माने गए हैं। इस प्रकार से सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव केवली समुद्घात की अपेक्षा से लोकव्यापी माने जाते हैं। दूसरे शब्दों में, मिथ्यादृष्टि जीव सर्वलोक में व्याप्त होकर रहे हुए हैं। इसी तरह सयोगकेवली भी जब केवली समुद्घात करता है तो उसके भी आत्मप्रदेश सर्वलोक में व्याप्त होते हैं। इस प्रकार मिथ्यात्व और केवली समुद्घात करता हुआ सयोगीकेवली जीव लोकव्यापी होता है, शेष सभी जीव लोक के एक भाग में ही निवास करते हैं । पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की गाथा क्रमांक ३०, ३१, ३२, ३३ में यह प्रश्न उठाया गया है कि किस गुणस्थानवर्ती जीव, लोक के कितने क्षेत्र का स्पर्श करके रहे हुए हैं ? इसका उत्तर देते हुए बताया है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं, अर्थात् चौदह रज्जु परिमाण लोक का स्पर्श करते हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव बारह रज्जु परिमाण क्षेत्र का स्पर्श करते हैं। इसे अधिक स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि छठी नारकी का कोई जीव अन्त समय में सम्यक्त्व का वमन करते हुए सास्वादन सम्यक्त्व को प्राप्त करके, वहाँ से मृत्यु को प्राप्त कर, तिर्यंच अथवा मनुष्यगति में उत्पन्न होता है। इ अपेक्षा से वह पाँच रज्जु क्षेत्र की स्पर्शना करता है । पुनः कोई तिर्यंच या मनुष्य सास्वादन गुणस्थान को प्राप्त करके लोकांत के निष्कुटों में सनाड़ी के अन्तिम छोर सूक्ष्म वनस्पतिकाय आदि में उत्पन्न होता है। इस अपेक्षा से वह सात रज्जु की स्पर्शना करता है । इन दोनों को मिलाकर सामान्य रूप से यह कहा गया है कि सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव बारह रज्जु क्षेत्र की स्पर्शना करता है । यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव अधोगति में नहीं जाता है, अतः सास्वादन गुणस्थान में जो क्षेत्र स्पर्शना कही गई है, उसे एक जीव की अपेक्षा से नहीं, अपितु अनेक जीवों की अपेक्षा से समझना चाहिए। मिश्र गुणस्थानवर्ती जीव, लोक के आठ रज्जु प्रमाण क्षेत्र का स्पर्श करके रहे हुए हैं। इसमें एक जीव ही आठ रज्जु क्षेत्र का स्पर्श करता है। जब कोई अच्युतदेवलोकवासी मिश्रदृष्टि जीव अपने भवनपति मित्र को स्नेह से अच्युत देवलोक ले जाए, तब उसे छः रज्जु की स्पर्शना होती है। इसी प्रकार जब कोई मिश्रदृष्टि सहस्रार देवलोक का देव अपने मित्र नारकी की वेदना शान्त करने हेतु अर्थात् वेदना बढ़ाने हेतु तीसरी नरक में जाता है, तब दो रज्जु की स्पर्शना होती है, तो इसप्रकार मिश्रगुणस्थानवर्ती जीव आठ रज्जु क्षेत्र का स्पर्श कर सकते हैं। पंचसंग्रहकार ने अविरतसम्यग्दृष्टि जीव उसी अवस्था में मृत्यु प्राप्त करने वाले होने पर भी, उनकी क्षेत्र स्पर्शना मिश्रगुणस्थानवर्ती जीवों की तरह उसी भव की अपेक्षा से की है। अगर ऐसा न हो, तो अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव को नौ रज्जुक्षेत्र की स्पर्शना सम्भव मानी जा सकती है। कोई जीव अनुत्तर विमान में से च्युत होकर मनुष्य में उत्पन्न हो, तो सात रज्जु की स्पर्शना होती है तथा सहस्रार आदि कोई सम्यग्दृष्टि देव नारकी जीव की वेदना को बढ़ाने या शांत करने तीसरी नरक में जाता है, तो मनुष्य लोक या तिर्यक् लोक के पश्चात् पहली और दूसरी नारक का एक-एक, ऐसे दो रज्जुक्षेत्र की स्पर्शना करता है । इसतरह नौ रज्जु क्षेत्र की स्पर्शना करता है। देशविरति गुणस्थानवर्ती जीव बारहवें देवलोक में उत्पन्न हो सकता है। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव तथा उपशमश्रेणी से आरोहण करनेवाले अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय और उपशान्तमोह गुणस्थानवर्ती जीव सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हो सकते हैं। इसी अपेक्षा से तिर्यक् लोक से प्रारम्भ करके सर्वार्थसिद्ध विमान तक वे सात रज्जु क्षेत्र की स्पर्शना करते हैं । क्षपक अर्थात् क्षपक श्रेणी आरोहण करने वाले अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादर, सूक्ष्मसंपराय, क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती जीव मृत्यु को प्राप्त नहीं करते हैं तथा मरण समुद्घात भी नहीं करते हैं, इसीलिए उन्हें लोक के असंख्यातवें भाग की क्षेत्र स्पर्शना मानी गई है । सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव जब केवली समुद्घात करते हैं, तब सम्पूर्ण चौदह रज्जु लोक की स्पर्शना करते हैं, अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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