________________
प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{279)
गुणस्थान और गुणश्रेणी :
__ पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ सातवीं और एक सौ आठवीं गाथा में गुणश्रेणियों की चर्चा है। इन गाथाओं में कहा गया है कि सम्यक्त्व, देशविरति और सर्वविरति गुणस्थानों को प्राप्त करने के पूर्व, अनन्तानुबन्धी कषाय की विसंयोजना करते समय, दर्शनमोह का क्षय करते समय, चारित्रमोह का उपशमन करते समय, उपशान्तमोह गुणस्थान की प्राप्ति के समय, चारित्रमोह का क्षय करते समय, गुणस्थानों में क्षीणमोह गुणस्थान को प्राप्त करते समय तथा सयोगीकेवली और अयोगीकेवली में साधक आत्मा गुणश्रेणी प्राप्त करता है। गुणश्रेणी वह अवस्था है जिसमें साधक सत्ता में रहे हुए कर्मदलिकों को इस क्रम से योजित करता है कि प्रत्येक अगले समय में पूर्व समय की अपेक्षा अनन्तगुणी कर्म निर्जरा हो सके । सामान्यतया कर्मों के स्थितिघात, रसघात, गुणसंक्रमण आदि की दृष्टि से उनको विशेष क्रम में योजित करके प्रतिसमय अधिक से अधिक उनका क्षय करते हुए आध्यात्मिक विशुद्धि के मार्ग में आगे बढ़ने की प्रक्रियाओं को भी गुणश्रेणी कहते हैं। आचारांगनियुक्ति में षट्खण्डागम के वेदना खण्ड की चलिका में तत्त्वार्थसत्र में और उसकी दिगम्बर टीकाओं में दस गणश्रेणियों की चर्चा है । शिवशर्मसरि ने अपनी कर्मप्रकति में 'जिने यदुविहे' कहकर ग्यारह गुणश्रेणियों का उल्लेख किया है। पंचसंग्रहकार ने भी उसी प्रकार ग्यारह गुणश्रेणियों की चर्चा की है। जिन ग्रन्थों में दस गणश्रेणियों की चर्चा है, उनमें दसवीं गणश्रेणी को जिन के नाम से ही उल्लेखित किया गया है, किन्त जो ग्यारह गुणश्रेणियों की चर्चा करते हैं, वे जिन नामक गणश्रेणियों के दो विभाग करते हैं-सयोगीकेवली और अयोगीकेवली। इसप्रकार ये एकादश गुणश्रेणियाँ केवली के सयोगी और अयोगी- ऐसे दो विभाग करने पर ही बनती है। डॉ. सागरमल जैन का कथन है कि (पृष्ठ २५) सम्भवतः पाँचवीं-छठी शताब्दी के पश्चात् गुणस्थान सिद्धान्त में सयोगीकेवली और अयोगीकेवली की अवधारणा के आने पर ही जिन नामक दसवीं गुणश्रेणी के विभाजन से गुणश्रेणियों की संख्या ग्यारह हो गई। श्वेताम्बर परम्परा में इन ग्यारह गुणश्रेणियों का अन्तिम उल्लेख देवेन्द्रसूरि कृत अर्वाचीन कर्मग्रन्थों में शतक नामक पाँचवें कर्मग्रन्थ की बयासीवीं गाथा में मिलता है । देवेन्द्रसूरि की विशेषता यह है कि उन्होंने अपनी स्वोपज्ञ टीका में न केवल इन ग्यारह गुणश्रेणियों का स्पष्टीकरण प्रस्तुत किया है, अपितु इन गुणश्रेणियों की गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा से निकटता भी सूचित की है। जहाँ तक दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है, उसमें षट्झण्डागम को छोड़कर कार्तिकेयानुप्रेक्षा आदि में हमें ग्यारह गुणश्रेणियों की चर्चा मिलती है। षट्खण्डागम में आचारांगनियुक्ति के समान ही अन्तिम अवस्था में जिन का ही उल्लेख है। वहाँ सयोगी और अयोगी-ऐसा विभाजन नहीं मिलता है । तत्त्वार्थसूत्र के मूल पाठ में भी केवल 'जिन' शब्द का ही उल्लेख मिलता है । इसके आधार पर ऐसा लगता है कि प्रारम्भ में तो श्वेताम्बर और दिगम्बर-दोनों ही परम्परा में दस गुणश्रेणियों की चर्चा थी, किन्तु आगे चलकर दोनों ही परम्परा में जिन के दो विभाग करके ग्यारह गुणश्रेणियों की चर्चा प्रारम्भ की गई । दिगम्बर परम्परा में सर्वप्रथम कार्तिकेयानुप्रेक्षा में तथा श्वेताम्बर परम्परा में सर्वप्रथम शिवशर्मसूरि की कर्मप्रकृति में हमें इन ग्यारह गुणश्रेणियों की चर्चा मिलती है। दिगम्बर परम्परा में षट्खण्डागम के यतिवृषभकृत चूर्णिसूत्रों में भी ग्यारह गुणश्रेणियों की चर्चा मिलती है, किन्तु यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि दिगम्बर परम्परा में गोम्मटसार के जीवकाण्ड की गाथा क्रमांक - ६६ और ६७ में ग्यारह गुणश्रेणियों की चर्चा न करते हुए दस ही गुणश्रेणियों का उल्लेख किया है । गोम्मटसार की ये दोनों गाथाएं आचारांगनियुक्ति और षट्खण्डागम के कुछ पाठान्तरों को छोड़कर साम्यता रखती है । इससे ऐसा लगता है कि षटखण्डागमकार ने आचारांगनियुक्ति का और गोम्मटसार के कर्ता ने षट्खण्डागम का आधार लेकर इन गाथाओं को अवतरित किया है, किन्तु इतना निश्चित है कि दिगम्बर परम्परा में कार्तिकेयानुप्रेक्षा और यतिवृषभकृत षट्खण्डागम की चूर्णिसूत्र के काल से ग्यारह गुणश्रेणियों की चर्चा प्रारम्भ हो गई थी । पंचसंग्रहकार ने भी ग्यारह गुणश्रेणियों की चर्चा की है, जो निम्नानुसार हैं - (१) सम्यक्त्वदर्शन प्राप्त करते समय जो तीन करण होते हैं, उनमें अपूर्वकरण तथा अनिवृत्तिकरण की अवस्था में गुणश्रेणी होती हैं । यह गुणश्रेणी सम्यक्त्व प्राप्त हो जाने के पश्चात् ही अन्तर्मुहूर्त काल तक चलती रहती है। यह सम्यक्त्व की प्राप्ति के निमित्त होने वाली प्रथम गुणश्रेणी है । (२-३)
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org