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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...
तृतीय अध्याय........{174} भगवतीआराधना में उनतीसवीं गाथा के मूल में तथा इस गाथा की अपराजितसूरि रचित विजयोदया टीका में यह प्रश्न उठाया गया है कि बालमरण और बालबालमरण के स्वामी कौन हैं ? बालमरण का स्वामी अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव तथा बालबालमरण का स्वामी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव है।
भगवती आराधना की सैतालीसवीं गाथा में बताया गया है कि सम्यग्दर्शन की आराधना करने वाला मरण के समय असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती होता है । सुविशुद्धि तीव्र लेश्यावाला अल्प संसारी अर्थात् संसार में बहुत अल्प समय रहने वाला होता है।
भगवतीआराधना की पचासवीं गाथा में और उसकी टीका में आराधना के तीन प्रकार बताए गए हैं-जघन्य आराधना, मध्यम आराधना और उत्कृष्ट आराधना । यहाँ कौन-सी आराधना किन-किन गुणस्थानवी जीव को होती है, इस विवेचन है । उत्कष्ट आराधना केवली अर्थात सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गणस्थानवर्ती जीव को होती है। देशविरतसम्यग्दृष्टि गणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक-इन सभी गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि जीवों को मध्यम आराधना होती है । जघन्य आराधना संक्लेश के परिणाम वाले अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव को होती है।
भगवती आराधना की तिरपनवीं गाथा में बताया गया है कि मिथ्यादृष्टि में सम्यग्दर्शन का अभाव होता है, उसी कारण से वह किसी का आराधक नहीं होता है, किन्तु उसमें ज्ञान और चरित्र तो है, अतः वह उनका आराघक तो हो सकता है । इस शंका का समाधान करने के लिए चौवनवीं गाथा में बताया है कि जो पुनः मिथ्यादृष्टि है, वह दृढ़ चारित्रवाला हो या अदृढ़ चारित्रवाला, वैसा जीव मरण करे तो वह किसी का आराधक नहीं होता है । तत्वार्थ श्रद्धान रूपी सम्यक्त्व के बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र नहीं होते, इसलिए मिथ्यादृष्टि रत्नत्रयी में से वह किसी का भी आराधक नहीं हो सकता।
भगवतीआराधना की १८७१ वीं गाथा में बताया गया है कि शुक्लध्यान करने में कौन समर्थ है? साधक जब धर्मध्यान को पूर्ण कर लेता है, तब भी अतिविशुद्ध लेश्या के साथ शुक्लध्यान को ध्याता है, क्योंकि वह परिणामों की उत्तरोत्तर निर्मलता को प्राप्त होता है। जिसने पहली सीढ़ी पर पैर नहीं रखा है, वह दूसरी सीढ़ी पर चढ़ नहीं सकता। अतः धर्मध्यान से परिपूर्ण अप्रमत्तसंयत गणस्थानवर्ती आत्मा ही शक्लध्यान करने में समर्थ होती है।
भगवती आराधना में १९७३ से लेकर १९७६ तक की गाथाओं में शक्लध्यान के स्वामी की चर्चा की गई है। वह इस प्रकार है :- (१) पृथक्त्वसवितर्क सविचार शुक्लध्यान, (२) एकत्वअवितर्क अविचार शुक्ल ध्यान, (३) सूक्ष्मक्रिया शुक्लध्यान और (४) समुच्छिन्नक्रिया शुक्लध्यान ।
१८७३ वीं गाथा में कहा है कि जिन अर्थात् सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव क्रमशः तृतीय सूक्ष्मक्रिया और चतुर्थ समुच्छिन्नक्रिया नामक शुक्लध्यान के स्वामी हैं। १८७४ वीं गाथा में शुक्ल ध्यान के प्रथम भेद का नाम पृथक्त्व सवितर्क है। यह प्रथम शक्लध्यान उपशान्तमोह गणस्थानवर्ती संयत जीव को होता है । इसे पथक्त्व सवितर्क शक्लध्यान कहा है, क्योंकि इसमें तीनों योगों के परिवर्तन के साथ ध्येय का भी परिवर्तन होता है, इसीलिए इसे पृथक्त्व सवितर्क कहते हैं। धर्मध्यान
और शुक्लध्यान के स्वामियों के सम्बन्ध में मतभेद पाया जाता है । तत्त्वार्थसत्र में कहा है कि श्रेणी प्रारंभ करने के पर्व धर्म ध्यान और श्रेणी में शुक्लध्यान होता है। श्रेणी आठवें अपूर्वकरण नामक गुणस्थान से प्रारंभ होती है, अतः आठवें गुणस्थान से ही पृथक्त्व सवितर्क शुक्लध्यान होता है, किन्तु यहाँ तो ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थान में पृथक्त्व सवितर्क शुक्लध्यान कहा है। श्वेताम्बर परम्परा में ऐसा माना गया है, किन्तु वीरसेनस्वामी ने धवला टीका'६७ में भी लिखा है कि कषायसहित जीवों को धर्मध्यान और कषायरहित जीवों को शुक्लध्यान होता है । कषाय के उदय का अभाव होने से उसको शुक्ल ध्यान कहा गया है। उपशान्तमोह गुणस्थान में कषायों का सर्वथा उपशम होने से उस गुणस्थानवी जीव को शुक्लध्यान होता है। १८७६ वीं गाथा में प्रथम और द्वितीय शुक्लध्यान के स्वामी का विवेचन किया है । योगों के परिवर्तन को विचार कहते हैं। 'अत्थाण वंजणाण य'
१६७ षट्खण्डागम, धवला टीका-समन्वित, खण्ड ५ पुस्तक १३ पृ.७४
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