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एक ओर व्यक्ति की आध्यात्मिक विकास यात्रा के विभिन्न चरणों को जानने में अभिरुचि और दूसरी ओर गुणस्थान सिद्धान्त के विकास को लेकर परस्पर विरोधी अवधारणाओं को देखकर ही इस विषय के गम्भीर अध्ययन की अभिप्रेरणा जागृत हुई और इस शोधकार्य के माध्यम से डॉ. सागरमल जैन के सान्निध्य में सम्पूर्ण उपलब्ध श्वेताम्बर और दिगम्बर साहित्य के आलोडन-विलोडन का निश्चय किया । यद्यपि यह एक अत्यन्त दुरूह कार्य था, किन्तु गुरुजनों के आशीर्वाद तथा मार्गदर्शक डॉ. सागरमल जैन के सहयोग से हमने इस दिशा में यथाशक्ति प्रयत्न किया है।
गुणस्थान सिद्धान्त को लेकर पूर्व में भी पर्याप्त विचार विमर्श हुआ है। प्राचीन काल से लेकर आधुनिक युग तक आचार्यों और विद्वानों ने इस विषय पर लिखा भी है । फिर भी डॉ. सागरमल जैन की कृति को छोड़कर तुलनात्मक गवेषणा के प्रयास कम ही हुए हैं। प्रस्तुत गवेषणा में जहाँ एक ओर हमें यह ज्ञात हुआ है कि अर्धमागधी आगम साहित्य में समवायांगसूत्र के चौदहवें समवाय को छोड़कर गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन का प्रायः अभाव ही है। भगवतीसूत्र और प्रज्ञापनासूत्र जैसे विशाल आगमों में भी न तो गुणस्थान सिद्धान्त का उल्लेख मिलता है और न उनमें चौदह गुणस्थानों का समग्र रूप से कोई उल्लेख मिलता है, फिर भी गुणस्थान सिद्धान्त में जिन चौदह सोपानों का उल्लेख हुआ है, उनमें सास्वादन को छोड़कर शेष अवस्थाओं के नामों के उल्लेख उपलब्ध होते हैं, किन्तु ये उल्लेख द्विक या त्रिक के रूप में ही हमें मिलते हैं, जैसे-मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र) और सम्यक्त्व; अविरत, विरताविरत, (देशविरत) और विरत; प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत; बादरकषाय और सूक्ष्मकषाय; उपशान्तकषाय
और क्षीणकषाय, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली। इसके अतिरिक्त ग्रन्थिभेद की प्रक्रिया के रूप में वर्णित तीन करणों में अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के उल्लेख भी मिल जाते हैं। फिर भी परवर्ती ग्रन्थों में गुणस्थान सम्बन्धी जो विवेचन उपलब्ध होता है, उसका अर्द्धमागधी आगम साहित्य में प्रायः अभाव ही है। अर्द्धमागधी आगम साहित्य के व्याख्या ग्रन्थों में भी सर्वप्रथम आवश्यकचूर्णि में और उसके पश्चात् आगमों के संस्कृत वृत्ति एवं टीकाओं में ही गुणस्थान सम्बन्धी उल्लेख हमें मिले हैं । इसके विपरीत दिगम्बर परम्परा में जो आगम और आगम तुल्य ग्रन्थ माने गए हैं, उनमें कषायपाहुड को छोड़कर सभी ग्रन्थों में कहीं न कहीं गुणस्थान सम्बन्धी निर्देश उपलब्ध हैं । विशेषता यह है कि षट्खण्डागम न केवल गुणस्थानों की विशेष विवेचन करता है; अपितु गुणस्थानों, जीवस्थानों और मार्गणास्थानों के पारस्परिक सम्बन्धों को लेकर उनका अवतरण भी करता है । इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में हमें एक बात बहुत स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है कि गुणस्थान सम्बन्धी जो गम्भीर विवेचन दिगम्बर साहित्य में उपलब्ध है उसकी अपेक्षा श्वेताम्बर साहित्य में और विशेष रूप से अर्द्धमागधी आगम साहित्य में कुछ नाम निर्देशों को छोड़कर प्रायः उसका अभाव ही है । श्वेताम्बर परम्परा में हमें सर्वप्रथम जीवसमास और उसके पश्चात् कर्मसाहित्य में विशेष रूप से श्वेताम्बर पंचसंग्रह तथा कर्मग्रन्थों में यह विवेचन उपलब्ध होता है । दिगम्बर परम्परा में भी षट्खण्डागम के अतिरिक्त प्राकृत और संस्कृत पंचसंग्रहों में तथा गोम्मटसार आदि कर्मसाहित्य में यह चर्चा पाई जाती है। इस प्रकार जहाँ तत्त्वार्थसूत्र और स्वोपज्ञ भाष्य में गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा का प्रायः अभाव ही है, वहीं दिगम्बर
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