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आचार्यों द्वारा रचित तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं में इसका विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है । दिगम्बर परम्परा की र तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में गुणस्थान सम्बन्धी जो विस्तृत विवेचन उपलब्ध है, वैसा विवेचन हमें तत्त्वार्थसूत्र ६ की श्वेताम्बर टीकाओं में विशेष रूप से सिद्धसेनगणि और आचार्य हरिभद्र की टीकाओं में उपलब्ध नहीं होता है ।
अपने इस अध्ययन के क्रम में हमने यह भी पाया है कि मध्यकाल में गुणस्थान के सम्बन्ध में अनेक स्वतन्त्र रचनाएं भी लिखी गई, किन्तु इनमें रत्नशेखरसूरि के गुणस्थान क्रमारोह को छोड़कर अन्य रचनाएं आज तक हस्तप्रतों के रूप में संरक्षित है, किन्तु उनका प्रकाशन नहीं हो पाया है । जैसे विमलसूरि का गुणस्थान-क्रमारोह, जयशेखरसूरि का गुणस्थान-क्रमारोह, जिनभद्रसूरि का गुणस्थान-क्रमारोह, अज्ञातकृत गुणस्थानद्वाराणि, आचार्य नेमिचन्द्र का गुणस्थान और मार्गणास्थान आदि अभी भी प्रकाशन की प्रतीक्षा कर रहें हैं । अपनी इस गवैषणा के परिप्रेक्ष्य में हमने आधुनिक युग में गुणस्थान सिद्धान्त पर लिखे गए ग्रन्थों का भी आलोडन किया है। उसमें आचार्य अमोलकऋषिजी द्वारा रचित गुणस्थान रोहण अढीशतद्वारी नामक ग्रन्थ अत्यन्त महत्वपूर्ण लगा । इसमें २५२ द्वारों में गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा उपलब्ध होती है, फिर भी भाषा आदि की दृष्टि से यह ग्रन्थ पर्याप्त संशोधन और परिमार्जन की अपेक्षा रखता है । पं. सुखलालजी ने कर्मग्रन्थों के प्रस्तावना में भी गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन किया है, किन्तु वह चर्चा अत्यन्त संक्षिप्त ही है। यद्यपि अन्य परम्पराओं के साथ तुलनात्मक विवेचन की दृष्टि से वह इस युग का प्रथम प्रयास किया जा सकता है । गुणस्थान पर स्वतन्त्र रूप से ग्रन्थ की रचना करने वाले विद्वानों ने डॉ. सागरमल जैन का 'गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण' अति महत्वपूर्ण कहा जा सकता है । यद्यपि इस ग्रन्थ में गुणस्थान सिद्धान्त के विकास क्रम को लेकर गम्भीर और शोधपरक दृष्टि से चिंतन उपलब्ध होता है, फिर भी उसमें गुणस्थान सम्बन्धी जो विस्तृत विवेचन षट्खण्डागम, सर्वार्थसिद्धि टीका, पंचसंग्रह आदि में मिलता है उसका अभाव ही है । गुणस्थान सम्बन्धी सैद्धान्तिक विस्तत चर्चा की अपेक्षा आचार्य नानालालजी कत "गणस्थान स्वरूप और विश्लेषण"को महत्वपूर्ण कहा जा सकता है । उन्होंने यह विवेचन पंचसंग्रह और कर्मग्रन्थों को आधार बनाकर विस्तृत रूप से प्रस्तुत किया है, किन्तु यह ग्रन्थ परम्परागत चर्चा के अतिरिक्त कोई नई बात नहीं कहता है । पुनः मात्र सैद्धान्तिक चर्चा करने के कारण यह ग्रन्थ सामान्य पाठकों के लिए दुरूह भी बन गया है । सामान्य पाठकों को दृष्टि में रखकर गुणस्थान सिद्धान्त की विवेचना आचार्य जयंतसेनसूरिजी ने अपने ग्रन्थ "आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएं एवं पूर्णता" में की है । यह ग्रन्थ गुणस्थान सिद्धान्त का संक्षिप्त और सरल विवेचन प्रस्तुत करता है, तुलनात्मक विवेचन में यह पूर्व लेखकों पं. सुखलालजी, डॉ. सागरमल जैन और आचार्य देवेन्द्रमुनि के प्रतिपादनों के समरूप ही है। यद्यपि यह तीनों ग्रन्थ स्पष्ट रूप से आधुनिक युग में गुणस्थान सिद्धान्त की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, फिर भी यह सब अपने विषय विवेचन की दृष्टि से संक्षिप्त ही है । इसी सन्दर्भ में हमें डॉ. प्रमिला जैन का “षटखण्डागम में गुणस्थान विवेचन" नाम का शोध प्रबन्ध भी प्राप्त हुआ है, किन्तु हमें यह देखकर अत्यन्त आश्चर्य हुआ है कि इस ग्रन्थ में षट्खण्डागम में वर्णित गुणस्थान सिद्धान्त की गम्भीर चर्चा नहीं है । विषय से हटकर अन्यान्य बातों का अन्य-अन्य ग्रन्थों के सन्दर्भ में गुणस्थानों का सतही स्तर का प्रतिपादन ही है । इसके अतिरिक्त डॉ. मुकुलराज मेहता का एक लघु शोध प्रबन्ध जैनधर्म में आध्यात्मिक विकास की अवस्थाएं के रूप में प्राप्त होता है, किन्तु यह ग्रन्थ भी अत्यन्त संक्षिप्त और प्राथमिक स्तर का है ।
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