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________________ ता स्वकथ्यम प्रत्येक धार्मिक एवं दार्शनिक परम्परा में व्यक्ति की आध्यात्मिक विकास यात्रा से सम्बन्धित विवेचन उपलब्ध होता है । व्यक्ति अपने पाशविक जीवन से उठकर परमात्म तत्त्व की ओर किस प्रकार अपनी यात्रा करता है और उस यात्रा के कितने पड़ाव होते हैं, यह विवेचन किसी न किसी रूप में सभी धर्म-दर्शनों में पाया जाता है । जैन दर्शन भी इसका अपवाद नहीं है । जैन धर्म-दर्शन में व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की इस यात्रा का उल्लेख विभिन्न रूपों में पाया जाता है। उनमें गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा अति महत्वपूर्ण है । जैन धर्म की श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं के साहित्य में इस सिद्धान्त का गहन और विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। यह सिद्धान्त मुख्यतः यह प्रतिपादित करता है कि व्यक्ति मिथ्यात्वमोह और चारित्रमोह का क्षय करते हुए किस प्रकार आगे बढ़ता है ? जैन धर्म-दर्शन में व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास में मुख्य रूप से बाधक तत्त्व मिथ्यात्व और कषाय माने गए हैं । व्यक्ति जैसे-जैसे इनसे ऊपर उठता है, वैसे-वैसे आध्यात्मिक विकास की ऊँचाईयों की ओर अग्रसर होता जाता है। आध्यात्मिक विकास की पूर्णता को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति क्रमिक रूप से ही अपने चरण आगे बढ़ाता है, जिन्हें हम आध्यात्मिक विकास के सोपान कह सकते हैं । आध्यात्मिक विकास के इन सोपानों को ही जैन धर्म-दर्शन में गुणस्थान की संज्ञा दी गई है तथा उनकी संख्या चौदह मानी गई है । ये चौदह गुणस्थान निम्न हैं - (१) मिथ्यात्व गुणस्थान, (२) सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, (३) सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, (४) अवरितसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, (५) देशविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान (६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान (७) अप्रमत्तसंयत गुणस्थान (८) अपूर्वकरण गुणस्थान (६) अनिवृत्तिकरण गुणस्थान (१०) सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान (११) उपशान्तमोह गुणस्थान (१२) क्षीणमोह गुणस्थान (१३) सयोगीकेवली गुणस्थान (१४) अयोगीकेवली गुणस्थान । इन चौदह गुणस्थानों के स्वरूप और उनमें होने वाले कर्मप्रकृतियों के बन्ध, बन्धविच्छेद, उदय, उदयविच्छेद, उदीरणा, उदीरणाविच्छेद, सत्ता, सत्ताविच्छेद आदि की अपेक्षा से जैनधर्म-दर्शन में विपुल साहित्य की रचना हुई है। ___ जहाँ परम्परा की दृष्टि से यह गुणस्थान की अवधारणा अति प्राचीन मानी जाती है, वहाँ विद्वानों ने गुणस्थान सिद्धान्त के क्रमिक विकास की चर्चा की है । जैनधर्म-दर्शन का विपुल साहित्य कालक्रम में विनष्ट हो गया है, अतः जो उपलब्ध साहित्य है, उसे ही आधार मानकर विद्वानों ने यह स्थापित करने का प्रयत्न किया है कि गुणस्थान सिद्धान्त का विकास श्वेताम्बर मान्य अर्द्धमागधी आगम साहित्य और तत्त्वार्थसूत्र तथा उसके स्वोपज्ञभाष्य के पश्चात् ही हुआ है, जबकि परम्परा इस सिद्धान्त का आधार विच्छिन्न पूर्व साहित्य को मानती है । उपलब्ध साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर जहाँ विद्वानों की मान्यता तर्कसंगत प्रतीत होती है, वहीं यदि हम विच्छिन्न पूर्व साहित्य और विशेष रूप से कर्म ( साहित्य की दृष्टि से विचार करें तो परम्परागत मान्यता को भी एकदम नकारा नहीं जा सकता है। 60A Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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