SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 525
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... नवम अध्याय........{469) होते हैं, शेष समय में आहारक ही होते हैं । इसी प्रकार सयोगीकेवली गुणस्थान में केवली समुद्घात करने वाला जीव उसके तीसरे, चौथे और पांचवें समय में अनाहारक होता है, जबकि अयोगीकेवली अनाहारक ही होता है । अतः अनाहारक अवस्था में मिथ्यादृष्टि, सास्वादन, अविरतसम्यग्दृष्टि, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली ये पांच गुणस्थान ही सम्भव होते हैं । आहारक जीवों में मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगीकेवली तक तेरह गुणस्थान पाए जाते हैं । दिगम्बर परम्परा के अनुसार सयोगीकेवली कवलाहार नहीं करता है, जबकि श्वेताम्बरों के अनुसार वह कवलाहार करता है। जहाँ तक तत्त्वार्थ सूत्र की टीकाओं का प्रश्न है, उनमें ध्यान और परिषहों के सन्दर्भ में भी गुणस्थानों का अवतरण किया गया है । इस प्रकार तीसरे, चौथे और पांचवें अध्यायों में गुणस्थानों के सन्दर्भ में चर्चा की गई है, उसे यहाँ हमने संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत की है। यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि कुछ मतभेदों को छोड़कर सामान्यतया श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचना समान रूप से ही उपलब्ध होती है। हमें इनमें कहीं भी ऐसी कोई विशेष भिन्नता परिलक्षित नहीं हुई,जो इनकी गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विवेचना में किसी विशेष अन्तर को अभिव्यक्त करती है। पंचसंग्रहों तथा नवीन और प्राचीन कर्मग्रन्थों अथवा गोम्मटसार में चाहे गाथाओं में शाब्दिक प्रस्तुतिकरण की दृष्टि से कुछ भिन्नतायें हो, किन्तु सिद्धान्त पक्ष की दृष्टि से हमें उनमें कोई विशेष भिन्नता प्रतीत नहीं होती है । जो भी किंचित् मतभेद उपलब्ध होते हैं, वे कर्मों के बन्ध, उदय आदि के विकल्पों की दृष्टि से ही उपलब्ध होते है । गुणस्थान सम्बन्धी इस समस्त विवेचन में श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में जो विशेष मतभेद देखे गए हैं, उनका उल्लेख पंडित सुखलालजी ने निम्न रूप में किया है ४६४ (9) श्वेताम्बर ग्रन्थों में तेजःकाय के वैक्रिय शरीर का कथन नहीं है, किन्तु दिगम्बर ग्रन्थों में है। (२) श्वेताम्बर सम्प्रदाय की अपेक्षा दिगम्बर सम्प्रदाय में संज्ञी-असंज्ञी का व्यवहार कुछ भिन्न है । श्वेताम्बर ग्रन्थों में हेतुवादोपदेशिकी आदि संज्ञाओं का विस्तृत वर्णन है, पर दिगम्बर ग्रन्थों में नहीं है । (३) श्वेताम्बर शास्त्र प्रसिद्ध करणपर्याप्त शब्द के स्थान पर दिगम्बर शास्त्र में निवृत्यपर्याप्त शब्द है। व्याख्या भी दोनों शब्दों की भिन्न है। (४) श्वेताम्बर ग्रन्थों में केवलज्ञान तथा केवलदर्शन के क्रमभावित्व, सहभावित्व और अभेद ये तीन पक्ष हैं ; परन्तु दिगम्बर ग्रन्थों में सहभावित्व का एक ही पक्ष है । (५) लेश्या तथा आयु के बन्धाबन्ध की अपेक्षा से कषाय के जो चौदह और बीस भेद गोम्मटसार में है, वे श्वेताम्बर ग्रन्थों में नहीं देखे गए। अपर्याप्त अवस्था में औपशमिक सम्यक्त्व पाए जाने और न पाए जाने के सम्बन्ध में दो पक्ष श्वेताम्बर ग्रन्थों में है. परन्तु गोम्मटसार में उक्त दो में से प्रथम पक्ष ही है । (७) अज्ञानत्रिक में गुणस्थानों की संख्या के सम्बन्ध में दो पक्ष कर्मग्रन्थ में मिलते हैं; परन्तु गोम्मटसार में एक ही पक्ष है। (८) गोम्मटसार में नारकों की संख्या कर्मग्रन्थ में वर्णित संख्या से भिन्न है। (E) द्रव्यमन का आकार तथा स्थान दिगम्बर सम्प्रदाय में श्वेताम्बर की अपेक्षा भिन्न प्रकार का माना है और तीन योगों के बाह्याभ्यन्तर कारणों का वर्णन राजवार्तिक में बहुत स्पष्ट किया है। (१०) मनःपर्यवज्ञान के योगों की संख्या दोनों सम्प्रदाय में तुल्य नहीं है। (११) श्वेताम्बर ग्रन्थों में जिस अर्थ के लिए आयोजिकाकरण, आवर्जितकरण और आवश्यक करण-ऐसी तीन संज्ञाएँ ४६४ दर्शन और चिन्तन भाग-२, पं. सुखलालजी, प्रकाशकः पं. सुखलालजी सन्मान समिति, गुजरात विद्यासभा-अमदाबाद, पृ. ३४२-३४३ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy