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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
नवम अध्याय........{468} अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक मति, श्रुत और अवधि - ये तीनों ही ज्ञान होते हैं । प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक मनःपर्यव ज्ञान की संभावना होने से चारों ज्ञान सम्भव हैं, जबकि सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानों में मात्र केवलज्ञान होता है।
(८) संयम या चारित्र पांच माने गए हैं-सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात। प्रथम गुणस्थान से लेकर चतुर्थ गुणस्थान तक चारित्र का अभाव होता है। देशविरति गुणस्थान में आंशिक रूप से सम्यग्चारित्र का सद्भाव पाया जाता है, जबकि प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान तक सामायिक और छेदोपस्थापनीय - ये दोनों चारित्र सम्भव होते है । अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में परिहारविशुद्धि चारित्र होता है । सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में सूक्ष्मसंपराय चारित्र पाया जाता है, उपशान्तमोह गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक यथाख्यात चारित्र सम्भव होता
(E) दर्शनमार्गणा- जैनदर्शन में दर्शन चार माने गए हैं । चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन सम्भव होता है । अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक अवधिदर्शन सम्भव होता है । सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थान में मात्र केवलदर्शन पाया जाता है।
(१०) लेश्यामार्गणा- लेश्याएँ छ: मानी गईं हैं - कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या। प्रथम गुणस्थान से लेकर चतुर्थ गुणस्थान तक प्रथम तीनों लेश्याएँ पाई जाती हैं । प्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सप्तम अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक तेजो और पद्मलेश्या होती है, जबकि प्रथम से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक शुक्ललेश्या सम्भव होती है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि शुक्ललेश्या का सद्भाव मिथ्यादृष्टि में माना गया है । इसका तात्पर्य यह है कि मिथ्यादृष्टि व्यक्ति में भी कभी-कभी शुद्ध अध्यवसाय प्रकट हो जाते हैं और उसमें भी लोकमंगल की भावना होती है । उदाहरणार्थ - तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध किया हुआ जीव जब पूर्व में नरकायु बन्ध होने से देहत्याग करते समय मिथ्यात्व तो ग्रहण करता है फिर भी उसमें उदात्त लोकमंगल की भावना या शुक्ललेश्या का सद्भाव हो सकता है ।
(११) भव्यमार्गणा- जीव दो प्रकार के माने गए हैं - भव्य और अभव्य । अभव्य जीव केवल मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में पाए जाते हैं । भव्य जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक सभी गुणस्थानों में मिलते हैं ।
(१२) सम्यक्त्वमार्गणा- उपशम सम्यक्त्व, वेदक सम्यक्त्व अर्थात् क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व - ये तीन प्रकार के सम्यक्त्व होते है । ये तीन सम्यक्त्व अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थान तक सम्भव होते हैं। ज्ञातव्य है कि उपशम सम्यक्त्व उपशान्तमोह गुणस्थान तक ही होता है । जबकि क्षायिक सम्यक्त्व अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक सम्भव होता है।
(१३) संज्ञीमार्गणा- जीव दो प्रकार के माने गए हैं - संज्ञी और असंज्ञी । असंज्ञी जीवों में मिथ्यात्व और सास्वादन - ये दो गुणस्थान ही सम्भव होते हैं । संज्ञी जीवों में प्रथम गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक सभी गुणस्थान पाए जाते हैं । सयोगीकेवली और अयोगीकेवली को नोसंज्ञी और नोअसंज्ञी कहा है, क्योंकि उनमें विचार की अपेक्षा नहीं होती है । वे तो मात्र साक्षी भाव में रहते हैं । मात्र द्रव्यमन की अपेक्षा इन दोनों गुणस्थानवी जीवों को संज्ञी माना जाता है।
(१४) आहारमार्गणा - आहार तीन प्रकार का है - ओजाहार, लोमाहार और कवलाहार । जो इन आहारों का ग्रहण करता है, वह आहारक जीव है, तथा जो इन तीनों प्रकार के आहार में से किसी भी प्रकार का आहार ग्रहण नहीं करता वह अनाहारक जीव है । जैनदर्शन के अनुसार एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को ग्रहण करने के बीच विग्रहगति से यात्रा करने वाले जीव, केवली समुद्घात करनेवाले केवली, अयोगीकेवली और सिद्ध अनाहारक माने जाते हैं । शेष जीव आहारक माने जाते हैं । मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सास्वादन गुणस्थान, अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव विग्रह गति से यात्रा करते समय अनाहारक
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