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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... नवम अध्याय........{467} हैं-(१) सत्य मनोयोग (२) असत्य मनोयोग (३) सत्यमृषा मनोयोग (४) असत्यामृषा मनोयोग (५) सत्य वचनयोग (६) असत्य वचनयोग (७) सत्यमृषा वचनयोग (८) असत्यामृषा वचनयोग (E) औदारिक काययोग (१०) औदारिक मिश्र काययोग (११) वैक्रिय काययोग (१२) वैक्रिय मिश्र काययोग (१३) आहारक काययोग (१४) आहारक मिश्र काययोग और (१५) कार्मण काययोग। ___ इन पन्द्रह योगों में से सत्य मनोयोग, सत्य वचनयोग, असत्यअमृषा मनोयोग और असत्यअमृषा वचनयोग-इन चार योग वाले संज्ञी प्राणी में मिथ्यात्व से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक सम्भव है । असत्य मनोयोग, असत्य वचनयोग, मिश्र मनोयोग और मिश्र वचनयोग-इन चार योग वाले संज्ञी प्राणी में मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक सभी बारह गुणस्थान सम्भव है । असंज्ञी विकलेन्द्रिय जीवों में मात्र असत्यअमृषा मनोयोग एवं असत्यअमृषा वचनयोग ही होता है। काययोगों में देव और नारक वैक्रिय शरीर वाले होते हैं। मनुष्य और तिर्यंच, वैक्रिय एवं औदारिक शरीर वाले होते हैं । छठे गुणस्थानवर्ती आत्मा में आहारक शरीर सम्भव होता है, जबकि सभी प्रकार के अपर्याप्त जीव मिश्र शरीर वाले होते हैं । __प्रथम गुणस्थान से लेकर चतुर्थ गुणस्थान तक के देव और नारकों में वैक्रिय, वैक्रिय मिश्र और कार्मण काययोग-ये तीन योग होते है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के मनुष्यों में तथा मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से देशविरति गुणस्थान तक के तिर्यंचों में औदारिक एवं वैक्रिय काययोग पाए जाते हैं । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि वैक्रिय काययोग केवल वैक्रिय लब्धि के धारक गर्भज मनुष्यों और तिर्यंचों में ही पाया जाता है । मनुष्यों में अप्रमत्तसंयत गुणस्थान और उसके आगे के सभी गुणस्थानों में वैक्रिय काययोग नहीं होता है, क्योंकि आत्मविशुद्धि के कारण ये वैक्रिय लब्धि का उपयोग नहीं करते हैं। इसी प्रकार प्रमत्तसंयत चौदह पूर्वधर मुनिराजों में आहारक काययोग की संभावना होती है। इसके साथ यह भी ज्ञातव्य है कि अपर्याप्त अवस्था में मिश्र गुणस्थान नहीं होता है । अतः उस अवस्था में ही वैक्रिय मिश्र काययोग सम्भव नहीं होता है। कार्मण काययोग भवान्तर में जाते हुए मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सास्वादन गुणस्थान और अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में तथा केवली समुद्घात करते समय सयोगीकेवली गुणस्थान में पाया जाता है। मिश्र गुणस्थान में कोई भी जीव मृत्यु को प्राप्त नहीं करता है । अतः तीसरे गणस्थान में कार्मण काययोग सम्भव नहीं होता है। (५) वेदमार्गणा - जैनदर्शन में वेद तीन माने गए हैं - पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद । नारकों में नपुंसकवेद, देवों में स्त्रीवेद और पुरुषवेद तथा तिर्यंचों एवं मनुष्यों में स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद - ये तीनों वेद पाए जाते हैं । मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान तक तीनों वेदों की संभावना होती है । शेष अग्रिम गुणस्थानों में वेद का अभाव होता है। जैनदर्शन में स्त्री, पुरुष और नपुंसक सम्बन्धी आंगिक संरचना लिंग कही जाती है तथा तत्सम्बन्धी कामवासना को वेद कहा जाता है । श्वेताम्बर एवं यापनीय परम्परा के अनुसार दसवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक कामवासना समाप्त होने पर तीनों ही लिंगों के धारक आरोहण कर सकते हैं, जबकि दिगम्बर परम्परा के अनुसार पांचवें गुणस्थान से आगे मात्र पुरुष ही आरोहण कर सकता है। (६) कषायमार्गणा- जैनदर्शन में कषायों के कुल पच्चीस भेद माने गए हैं । मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में पच्चीस ही कषायों की संभावना होती है । अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क को छोड़कर इक्कीस कषायों का उदय सम्भव रहता है । देशविरतिसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपर्युक्त चार तथा अप्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क को छोड़कर सत्रह कषायों का उदय रहता है । प्रमत्तसंयत गुणस्थान में उपर्युक्त आठ के साथ प्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क का भी अभाव होने से आगे के अप्रमत्तंसयत अपूर्वकरण गुणस्थान में शेष तेरह योग सम्भव होते हैं । अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के प्रारम्भ में हास्यषट्क का क्षय हो जाने से संज्वलन चतुष्क तथा वेदत्रिक - इन सात कषायों का उदय रहता है । सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में वेदत्रिक और संज्वलन लोभ शेष रहता है । अग्रिम चारों गुणस्थानों में कषाय की सत्ता का अभाव हो जाता है । (७) ज्ञानमार्गणा- जैनदर्शन में पांच ज्ञान माने गए हैं । साथ ही तीन अज्ञान भी हैं । मिथ्यादृष्टि और सास्वादन गुणस्थान में इन तीनों अज्ञानों की सत्ता होती है । मिश्र गुणस्थान में इन तीनों अज्ञानों एवं तीनों ही ज्ञानों का मिश्रित रूप बोध होता है । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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