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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... नवम अध्याय........{466} अपर्याप्त जीवस्थानों में प्रथम और द्वितीय ये दो गुणस्थान सम्भव होते हैं, लेकिन यहाँ करण अपर्याप्त ही समझना चाहिए, क्योंकि लब्धि अपर्याप्त से करण अपर्याप्त जीव विशुद्धतर परिणामवाले होते हैं । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त में भी पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय जीवों में ही सास्वादन गुणस्थान होता है, अग्निकाय और वायुकाय में सास्वादन गुणस्थान नहीं होता है । संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवों में प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ अविरतसम्यग्दृष्टि ये तीन गुणस्थान होते हैं । तीर्थकर परमात्मा आदि महापुरुष माता की कुक्षि में जब जन्म लेते हैं, तब सम्यक्त्व सहित जन्म लेते हैं तथा श्रेणिक महाराजा आदि क्षायिक सम्यक्त्व वाले जीव का जब नरकगति में जन्म होता है, तब करण अपर्याप्त अवस्था में अविरतसम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान होता है । संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव में चौदह गुणस्थान सम्भव होते हैं । देव और नारकी को चार गुणस्थान, तिर्यंच को पांच और मनुष्य में मिथ्यात्व से लेकर केवलज्ञान तक सभी गुणस्थान होते हैं । यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवाले केवलज्ञानी विकल्प या विचार रहित होने से शास्त्र में उन्हें नो संज्ञी-नो असंज्ञी कहा है, फिर भी उनमें तेरहवाँ सयोगीकेवली गुणस्थान कैसे सम्भव होगा? इसका उत्तर यह हो सकता है कि तेरहवें गुणस्थानवर्ती केवली मनोविकल्पों से रहित होने पर भी मनःपर्यवज्ञानी और अनुत्तरविमानवासी देवों के द्वारा पूछे हुए प्रश्नों के उत्तर देते हैं, वे द्रव्य मनवाले होते हैं, अतः द्रव्य मन के कारण उन्हें संज्ञी माना है । इसीलिए संज्ञी जीवों में तेरहवाँ और चौदहवाँ गुणस्थान सम्भव होता है । गुणस्थान और मार्गणास्थान : जीवों की विभिन्न पर्यायों या अवस्थाओं के सन्दर्भ में जिन-जिन अपेक्षाओं से विमर्श या अन्वेषण किया जाता है, वे सभी मार्गणा कही जाती है। जैनदर्शन में जीव के सम्बन्ध में चौदह मार्गणाओं का उल्लेख मिलता है-(१) गति (२) इन्द्रिय (३) काय (४) योग (५) वेद (६) कषाय (७) ज्ञान (८) संयम (६) दर्शन (१०) लेश्या (११) भव्यत्व (१२) सम्यक्त्व (१३) संज्ञी और (१४) आहार । जीवसमास, षटखण्डागम और गोम्मटसार आदि सिद्धान्त ग्रन्थों में इन चौदह मार्गणाओं की अपेक्षा से गुणस्थानों की विस्तृत चर्चा की गई है । यहाँ तुलना की दृष्टि से संक्षिप्त उल्लेख करेंगे । (१) गतिमार्गणा - गतियाँ चार है-(१) देव (२) नारक (३) तिर्यंच और (४) मनुष्य । देव और नारक गतियों में मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के चार गुणस्थान होते है । तिर्यचों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर देशविरतिसम्यग्दृष्टि तक के पांच गुणस्थान होते हैं । मनुष्य गति में मिथ्यात्व से लेकर अयोगीकेवली तक सभी गुणस्थान पाए जाते हैं। (२) इन्द्रियमार्गणा-इन्द्रियाँ पांच हैं । इनमें एकेन्द्रिय में सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त - ऐसे चार भेद होते हैं । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय के पर्याप्त और अपर्याप्त - ऐसे छः भेद होते हैं । पंचेन्द्रिय के संज्ञी पर्याप्त, संज्ञी अपर्याप्त, असंज्ञी पर्याप्त और असंज्ञी अपर्याप्त ऐसे चार भेद होते हैं। इस प्रकार इन्द्रियों की अपेक्षा से जीवों के चौदह भेद होते हैं । इनमें एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के जीवों में मात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही पाया जाता है, जबकि पंचेन्द्रिय जीवों में मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली तक के चौदह गुणस्थान सम्भव होते हैं । ज्ञातव्य है कि करण अपर्याप्त बादर पृथ्वीकाय, अप्काय एवं वनस्पतिकाय में तथा उसी प्रकार करण अपर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय जीव में जन्म के समय सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान की संभावना स्वीकार की गई है, किन्तु इस गुणस्थान का काल अल्प होने से सामान्यतया यही माना गया है कि एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के जीवों में मात्र मिथ्यात्व गुणस्थान होता है। (३) कायमार्गणा- काय छः है - पृथ्वी, अप्, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रसकाय । इनमें पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय तक के जीवों में मात्र मिथ्यात्व गुणस्थान होता है । त्रसकाय में चौदह गुणस्थान पाए जाते हैं । (४) योगमार्गणा- सामान्यतः योग तीन माने गए हैं - मनयोग, वचनयोग और काययोग । परन्तु उनके आवान्तर भेद पन्द्रह Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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