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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
नवम अध्याय........{465)
१४१ कर्मप्रकृतियों, उपशम सम्यक्त्व वाले को १४८ कर्मप्रकृतियों की सत्ता सम्भव होती है । अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थान में विकल्प से ५६ या ५८ कर्मप्रकृतियों का बन्ध, ७६ कर्मप्रकृतियों का उदय, ७३ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव है । इस गुणस्थान में भी सत्ता की अपेक्षा से १४१ अथवा १४८ कर्मप्रकृतियों की सत्ता सम्भव होती है । अपूर्वकरण नामक आठवें गणस्थान में अनेक स्तर माने गए है । उन स्तरों की अपेक्षा से इस गुणस्थान में ५८, ५६ अथवा २६ कर्मप्रकृतियों का बन्ध सम्भव होता है । साथ ही ७२ कर्मप्रकृतियों का उदय, ६६ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव होती है । सत्ता की अपेक्षा से इस गुणस्थान में सामान्यतया १४८ कर्मप्रकृतियों की सत्ता सम्भव हो सकती है, किन्तु क्षायिक सम्यग्दृष्टि में १४१ तथा तीर्थंकर नामकर्म सहित क्षायिक सम्यग्दृष्टि में १४२ कर्मप्रकृतियों की सत्ता सम्भव होती है । अनिवृत्तिकरण नामक नवें गुणस्थान में भी अनेक चरण होते हैं । उनकी अपेक्षा से इन गुणस्थान में २२ अथवा १६ कर्मप्रकृतियों का बन्ध, ६६ कर्मप्रकृतियों का उदय तथा ६३ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव होती है । सत्ता की अपेक्षा से यहाँ भी अपूर्वकरण गुणस्थान के समान स्थिति है, अर्थात् १४१, १४२ अथवा १४८ तीनों ही विकल्प सम्भव होते हैं । सूक्ष्मसम्पराय नामक गुणस्थान में १७ कर्मप्रकृतियों का बन्ध, ६० कर्मप्रकृतियों का उदय तथा ५६ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव है । सत्ता की अपेक्षा से पूर्ववत् स्थिति मानी गई है । उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान में बन्ध की अपेक्षा मात्र सातावेदनीय का बन्ध सम्भव होता है । उदय की अपेक्षा ५६ कर्मप्रकृतियों का उदय, ५६ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव होती है । सत्ता के सम्बन्ध में पूर्ववत् स्थिति समझना चाहिए। क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान में एक कर्मप्रकृति का बन्ध, ५७ अथवा ५५ कर्मप्रकृतियों का उदय, ५४ या ५२ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव होती है । क्षीणमोह गुणस्थान में सत्ता की अपेक्षा से दो विकल्प हैं - १०१ अथवा ६६ कर्मप्रकृतियों की सत्ता सम्भव होती है । सयोगीकेवली नामक तेरहवें गुणस्थान में एक कर्मप्रकृति का बन्ध, ४२ कर्मप्रकृतियों का उदय, ३६ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव रहेगी । सत्ता की अपेक्षा यहाँ ८५ कर्मप्रकृतियों की सत्ता सम्भव होती है । अयोगीकेवली नामक चौदहवें गुणस्थान में बन्ध एवं उदीरणा का अभाव होता है, तथा उदय की अपेक्षा से १२ कर्मप्रकृतियों का उदय सम्भव है । सत्ता की अपेक्षा से इस गुणस्थान के प्रारम्भ में ८५ कर्मप्रकृतियों की सत्ता सम्भव हो सकती है, किन्तु इस गुणस्थान के अन्तिम चरण में तीर्थंकर नामकर्म वाले को १३ कर्मप्रकृतियों और सामान्य केवली को १२ कर्मप्रकृतियों की सत्ता रहती है। इस प्रकार षट्खण्डागम तथा कर्मसाहित्य के ग्रन्थों में विभिन्न गुणस्थानों में कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध, कितनी कर्मप्रकृतियों का उदय, कितनी कर्मप्रकृतियों की उदीरणा और कितनी कर्मप्रकृतियों की सत्ता होती हैं, उसकी संक्षिप्त चर्चा की गई है । षट्खण्डागम और कर्मसाहित्य में बन्ध, उदय आदि की चर्चा के साथ-साथ जीवस्थानों में गुणस्थानों की एवं मार्गणास्थानों में गुणस्थानों की जो चर्चा की गई है, उसे हम यहाँ संक्षिप्त रूप में प्रस्तत कर रहे हैं। गुणस्थान और जीवस्थान :____ जैनदर्शन के अनुसार जीव नानाविध कर्मवशात् संसार में परिभ्रमण करता है । संसार में जीवों के परिभम्रण करने के स्थान अर्थात् जीवों के रहने के निम्न चौदह स्थान बताये गए हैं -
(१) सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त (२) सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त (३) बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त (४) बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त (५) द्वीन्द्रिय पर्याप्त (६) द्वीन्द्रिय अपर्याप्त (७) त्रीन्द्रिय पर्याप्त (८) त्रीन्द्रिय अपर्याप्त (६) चतुरिन्द्रिय पर्याप्त (१०) चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त (११) संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त (१२) संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त (१३) असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और (१४) असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त ।
सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, द्वीन्द्रिय पर्याप्त, त्रीन्द्रिय पर्याप्त, चतुरिन्द्रिय पर्याप्त और असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त इन सात जीवस्थानों में मात्र मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है।
बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, द्वीन्द्रिय अपर्याप्त, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त, अंसज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त इन पांच
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