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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
नवम अध्याय........{464}
निर्देश तो उपलब्ध है, किन्तु सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा राजवार्तिक में और राजवार्तिक की अपेक्षा श्लोकवार्तिक में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन अल्प ही है ।
जहाँ तक श्वेताम्बर परम्परा में सिद्धसेनगणि की तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति और हरिभद्रसूरि की तत्त्वार्थभाष्य टीका का प्रश्न है, उनमें गुणस्थान सम्बन्धी यथाप्रसंग कुछ संकेत ही उपलब्ध है । यहाँ तक कि इन दोनों टीकाओं में एक स्थल पर चौदह गुणस्थानों का नामनिर्देश भी स्पष्ट रूप से उपलब्ध नहीं होता है ।
प्रस्तुतकृति का पंचम अध्याय श्वेताम्बर और दिगम्बर कर्मसाहित्य के ग्रन्थों में गणस्थान सम्बन्धी विवेचना से सम्बन्धित है । कर्मसाहित्य के ग्रन्थों में यद्यपि कसायपाहुड और षट्खण्डागम को भी सम्मिलित किया जा सकता है, किन्तु दिगम्बर परम्परा में आगम रूप में मान्य होने के कारण इन दोनों ग्रन्थों में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन किस रूप में उपलब्ध होता है, इसका विवेचन शौरसेनी आगम साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा नामक तृतीय अध्याय में ही किया गया है।
जहाँ तक श्वेताम्बर दिगम्बर कर्मसाहित्य का प्रश्न है, हमने इसमें श्वेताम्बर परम्परा में शिवशर्मसूरिकृत कर्मप्रकृति, चन्द्रर्षि कृत पंचसंग्रह, प्राचीन षट् कर्मग्रन्थ और देवेन्द्रसूरि कृत नवीन पाँच कर्मग्रन्थों का समावेश किया है। इसी क्रम में दिगम्बर परम्परा में हमने अज्ञात कृतक प्राकृत पंचसंग्रह, गोम्मटसार तथा संस्कृत के दोनों पंचसंग्रहों को समाहित किया है। यह स्पष्ट है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में गणस्थान सम्बन्धी विस्तृत और व्यापक जो चर्चाएं उपलब्ध हैं, वे षट्खण्डागम
और सर्वार्थसिद्धि टीका को छोड़कर मुख्य रूप से कर्मसाहित्य सम्बन्धी ग्रन्थों में ही उपलब्ध होती है । दोनों ही परम्पराओं का कर्मसाहित्य गुणस्थानों का विवेचन दो दृष्टियों से है। प्रथम तो ये सभी ग्रन्थ विभिन्न गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों के बन्ध, बन्ध विच्छेद, सत्ता, सत्ताविच्छेद, उदय, उदयविच्छेद, उदीरणा, उदीरणाविच्छेद की चर्चा करते हैं । इसके साथ ही इन ग्रन्थों में गुणश्रेणियों, उपशमश्रेणी, क्षपकश्रेणी, बन्धस्थानों, सत्तास्थानों तथा तत्सम्बन्धी विभिन्न विकल्पों (मंगों) का इनमें व्यापक रूप से विचार किया गया है । दूसरे इन ग्रन्थों में जीवस्थानों, मार्गणास्थानों, बन्धहेतुओं आदि में भी गुणस्थानों का अवतरण किया गया है । इस प्रकार षट्खण्डागम एवं कर्मसाहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी जो विवेचना उपलब्ध होती है, संक्षेप में वह विभिन्न गुणस्थानों में विभिन्न कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय और सत्ता को लेकर है अथवा जीवस्थान में गुणस्थान, मार्गणास्थान में गुणस्थान आदि की चर्चा से युक्त है । इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा तो हम पूर्व अध्याय में कर चुके हैं । यहाँ तो उसको अति संक्षेप में प्रस्तुत करेंगे। गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों का बन्ध, उदय आदि :
मिथ्यात्व गुणस्थान में ११७ कर्मप्रकृतियों का बन्ध, ११७ कर्मप्रकृतियों का उदय और ११७ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव होती है, किन्तु सत्ता १४८ कर्मप्रकृतियों की सम्भव है । सास्वादन गुणस्थान में १०१ कर्मप्रकृतियों का बन्ध, १११ कर्मप्रकृतियों का उदय तथा १११ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा होती है । सत्ता की अपेक्षा से १४७ कर्मप्रकृतियों की सत्ता सम्भव है। . मिश्र गुणस्थान में ७४ कर्मप्रकृतियों का बन्ध तथा १०० कर्मप्रकृतियों का उदय और १०० कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव होती है । इस गुणस्थान में भी १४७ कर्मप्रकृतियों की सत्ता सम्भव है । अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में ७७ कर्मप्रकृतियों का बन्ध तथा १०४ कर्मप्रकृतियों का उदय, १०४ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव होती है । इस गुणस्थान में सत्ता की अपेक्षा १४८ कर्मप्रकृतियों की सत्ता सम्भव है । देशविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में ६७ कर्मप्रकृतियों का बन्ध तथा ८७ कर्मप्रकृतियों का उदय
और ८७ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव होती है । सत्ता की अपेक्षा से यहाँ भी १४८ कर्मप्रकृतियों की सत्ता सम्भव है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जिनको क्षायिक सम्यक्त्व होता है उन्हें ही सत्ता की अपेक्षा से १४८ कर्मप्रकतियाँ सम्भव होती है । चौथे और पांचवें गुणस्थान में १४१ कर्मप्रकृतियों की सत्ता सम्भव होती है । प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थान में ६३ कर्मप्रकृतियों का बन्ध, ८१ कर्मप्रकृतियों का उदय, ८१ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव होती है । सत्ता की अपेक्षा से यहाँ भी क्षायिकसम्यक्त्व वाले को
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