SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{88} के जीव होते हैं। सूक्ष्म कषाय को सूक्ष्मसंपराय कहते हैं। इस गुणस्थान में जिन संयतो ने आत्म शुद्धि हेतु प्रवेश किया है, उन्हें सूक्ष्मसंपराय प्रविष्ट शुद्धिसंयत कहते हैं। ये भी उपशमक और क्षपक, दोनों प्रकार के हो सकते है। इनमें चारित्रमोह की अपेक्षा से क्षायिक अथवा औपशमिक भाव हो सकता है, किन्तु सम्यग्दर्शन की अपेक्षा क्षपक श्रेणी वालों को क्षायिक भाव ही होता है। उपशम श्रेणी वालों में औपशमिक और क्षायिक दोंनो में से कोई एक भाव हो सकता है, क्योंकि दोनों ही प्रकार के सम्यक्त्व में उपशमश्रेणी पर आरोहण सम्भव है । जिनकी कषाय उपशान्त हो गई है, उन्हें उपशान्त कषाय कहते हैं और जिनका राग नष्ट हो गया है उन्हें वीतराग कहते हैं, किन्तु ज्ञानावरण और दर्शनावरणरूप छद्म के रहने से वे छद्मस्थ भी कहलाते हैं। जो वीतराग होते हुए भी छद्मस्थ है, उन्हें वीतराग छद्मस्थ कहते हैं। इसमें वीतराग विशेषण के द्वारा दसवें गुणस्थान तक के सराग छद्मस्थ का निवारण समझना चाहिए। जो उपशान्त कषाय होते हुए भी वीतराग छद्मथ हैं, उन्हें उपशान्त कषाय वीतराग छद्मस्थ कहते हैं। इस गुणस्थान में सम्पूर्ण कषाय उपशान्त हो जाती है, इसीलिए यहाँ चारित्र की अपेक्षा औपशमिक भाव तथा सम्यग्दर्शन की अपेक्षा औपशमिक या क्षायिक भाव में से कोई एक होता है। जिस तरह वर्षा ऋतु के गन्दे पानी में निर्मली फल डालने से गन्दापन नीचे बैठ जाता है और पानी स्वच्छ हो जाता है, उसी तरह समस्त मोहनीय कर्म के उपशम से जीवों के जो परिणाम उत्पन्न होते हैं, उन्हें उपशान्तकषाय गुणस्थान समझना चाहिए। जिनकी कषाय क्षीण हो गई हो, उन्हें क्षीणकषाय कहते हैं। जो क्षीणकषाय के साथ वीतराग तथा छद्मस्थ होते हैं, उन्हें क्षीण कषाय वीतराग छद्मस्थ कहते हैं। छद्मस्थ पद अन्तर्दीपक होने से पूर्ववर्ती समस्त गुणस्थानों के छद्मस्थ पाने का सूचक है। इस गुणस्थान में दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय कर्म सर्वथा क्षय हो जाता है, अतः चारित्र और सम्यग्दर्शन दोनों की अपेक्षा से क्षायिक भाव रहता है। जिसने सम्पूर्ण रूप से प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप मोहनीय कर्म को क्षय कर दिया है, उसी कारण जिसका अन्तःकरण स्फटिक मणि के निर्मल भाजन में रखे हुए जल के समान निर्मल हो गया हो, ऐसे निग्रंथ साधु क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती होते हैं। जिस ज्ञान में इन्द्रिय, आलोक और मन.की अपेक्षा नहीं होती है उसे केवल (असहाय) कहते हैं। जिस जीव को केवलज्ञान होता है , वह केवलज्ञानी कहलाता है। जो योग सहित रहते हैं, उन्हें सयोग कहते हैं। इसी तरह जो सयोग के साथ केवली हैं, वे सयोगीकेवली कहे जाते हैं। इसमें जो सयोग शब्द है, वह अन्तर्दीपक होने से तेरहवें गुणस्थान तक के सभी गुणस्थान सयोगी है। चार घाती कर्मों का क्षय कर देने से तथा वेदनीय कर्म को शक्तिहीन कर देने से अथवा आठों ही कर्मो की अवयवभूत साठ उत्तर कर्म प्रकृतियों को (घाती कर्मों की सैंतालीस और नामकर्म की तेरह) क्षय कर देने से उन्हें क्षायिक भाव ही होते हैं। जिसके योग विद्यमान नहीं है, परन्तु केवलज्ञान है, उन्हें अयोगीकेवली कहते हैं। सम्पूर्ण घाती कर्मों का क्षय होने से इस गुणस्थान में भी क्षायिक भाव ही रहता है। जो अठारह हजार प्रकार के शील के स्वामी होकर मेरू के समान निष्कम्प अवस्था को प्राप्त है तथा जिन्होंने सम्पूर्ण आसव का निरोध कर दिया है तथा मन, वचन और काया के योग से रहित होते हुए भी केवलज्ञान से विभूषित हैं, उन्हें अयोगीकेवली कहते हैं। सिद्ध, निष्ठित, निष्पन्न, कृतकृत्य और सिद्धसाध्य - ये उनके पर्यायवाची नाम हैं । जिन्होंने समस्त कर्मों का निराकरण करके निरपेक्ष अनन्त, अनुपम, स्वाभाविक और निर्बाध सुख को प्राप्त कर लिया है, जो निर्लेप है, निश्चल स्वरूप को प्राप्त है, सम्पूर्ण गुणों के निधान है, जिनकी आत्मा का आकार अन्तिम शरीर से कुछ न्यून है, जो लोक के अग्र भाग में निवास करते हैं, उन्हें सिद्ध कहते हैं । षट्खण्डागम में चौदह मार्गणाओं एवं अष्ट अनुयोगद्वारों में गुणस्थानों का अवतरण (8) सत्प्ररूपणाद्वार में विभिन्न मार्गणाओं में गुणस्थानों का अवतरण: षट्खण्डागम के जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड के सत्प्ररूपणा नामक प्रथम द्वार७७ में आदेश अर्थात् विशेष की अपेक्षा से मार्गणाओं का विवेचन करते हुए बताया है कि प्रथम गति मार्गणा में पाँच गतियाँ उल्लेखित हैं - १. नरक गति २. तिथंच गति ३. मनुष्य गति ४. देव गति ५. सिद्ध गति । जो हिंसादि कार्यों में रत है उन्हें निरत और उनकी गति को निरय (नरक) गति कहते हैं। १७७ षट्खण्डागम, पृ १२ से ५२, प्रकाशनः श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy