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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{87} में रहने से यह संयमासंयम की अवस्था होती है।
प्रकर्ष अर्थात विशेष रूप से जो मत्त है. उन्हें प्रमत्त कहते हैं. अर्थात प्रमादसहित जीवों का नाम प्रमत्त है और जो पूरी तरह से विरति या संयम को प्राप्त हैं, वे संयत हैं । तात्पर्य यह है कि जो प्रमाद से युक्त होते हुए भी संयत है, वे प्रमत्तसंयत कहे जाते हैं। छठे गुणस्थान में प्रमाद के रहते हुए भी संयम का अभाव नहीं है। यहाँ “प्रमत्त" शब्द अन्तर्दीपकन्याय है, इसीलिए इससे पूर्व के सभी गुणस्थानों में प्रमाद का सद्भाव समझना चाहिए। इस गुणस्थान में संयम की अपेक्षा से क्षायोपशमिक भाव रहता है, क्योंकि वर्तमान में प्रत्याख्यानीय कषायचतुष्क के सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदय में आकर क्षय हो जाने से तथा उन्हीं के आगामी समय में आने वाले तथा सत्ता में स्थित सर्वघाती स्पर्द्धकों का उपशम होने से तथा संज्वलन कषाय के उदय की स्थिति होने से यह प्रमत्तसंयत गुणस्थान प्राप्त होता है। सम्यग्दर्शन की अपेक्षा से क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक भाव भी रहते हैं। संज्वलन कषाय तथा नोकषाय के उदय से चारित्र के पालन में जो असावधानी होती है, उसे ही प्रमाद कहते हैं। वह स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा और राजकथा, क्रोध, मान, माया और लोभ, स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र, निद्रा और प्रणय (कामवासना का उदय) के भेद से पन्द्रह प्रकार का है।
जिनका संयम प्रमाद के पन्द्रह प्रकारों से रहित होता है, उन्हें अप्रमत्त संयत कहते हैं। इस गुणस्थान में भी संयम की अपेक्षा से क्षायोपशमिक भाव रहता है, क्योंकि उस समय में प्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क के सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदय नहीं होने से और आगामी समय में उदय में आनेवाले स्पर्द्धकों का उपशम हो जाने से तथा संज्वलन कषाय का मन्द उदय होने से अप्रमत्तसंयत होता है। यहाँ सम्यक्त्व की अपेक्षा क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक भाव हो सकते हैं। .
अब चारित्र मोहनीय का उपशम या क्षय करनेवाले गुणस्थान का निरूपण करते हैं। अपूर्वकरण गुणस्थान में प्रवेश करने वाले संयतों में उपशमक और क्षपक दोनों होते हैं। करण शब्द का अर्थ परिणाम या मनोभाव होता है। जो परिणाम पूर्व के किसी भी गुणस्थान में नहीं हुए हैं, ऐसे आत्म परिणाम को ही अपूर्वकरण कहते हैं। प्रथम समय से लेकर प्रत्येक समय में क्रमशः वृद्धिगत आत्म-विशुद्धि के परिणाम इस गुणस्थानवी जीवों को छोडकर अन्य जीवों को प्राप्त नहीं होने से वे परिणाम अपूर्व कहे जाते हैं। ये अपूर्व परिणाम जिन जीवों को होते हैं, वे अपूर्वकरण प्रविष्ट-शुद्धि संयत कहे जाते हैं। जो जीव चारित्र मोहनीय कर्म
सय करने में उद्यत होते हैं वे क्षपक कहलाते हैं। अपूर्वकरण गणस्थान को प्राप्त हए सभी जीवों के, चाहे वे क्षपक हो या उपशमक, परिणामों में समानता होती है। इस गुणस्थानवर्ती क्षपक जीवों में क्षायिक तथा उपशमक जीवों में औपशमिक भाव पाए जाते हैं। सम्यग्दर्शन की अपेक्षा से क्षपक में क्षायिक भाव ही होता है, किन्तु उपशमक में औपशमिक तथा क्षायिक दोनों में से कोई एक भाव हो सकता है। जो जीव दर्शनमोह का क्षय नहीं करता है, वह क्षपकश्रेणी पर तथा जो जीव दर्शनमोह का क्षय या उपशम नहीं करता है, वह उपशमश्रेणी पर चढ़ नहीं सकता है।
समान समयवर्ती जीवों के समान परिणामों की वृत्ति को अनिवृत्ति कहा जाता है। निवृत्ति का अन्य अर्थ व्यावृत्ति भी होता है। जिसमें परिणामों की व्यावत्ति अर्थात विषम परिणमन नहीं होता है, उसे अनिवत्तिकरण कहते समयवर्ती जीवों के सर्वथा विसदश और अभिन्न समयवर्ती जीवों के सर्वथा सदश परिणाम होते हैं। अनिवत्तिकरण गणस्थान के अन्तर्महर्त मात्र जितने समय में भी किसी काल विशेष में रहनेवाले अनेक जीवों में जिस प्रकार से शरीर का आकार, अवगाहना और वर्ण आदि बाह्य पर्यायों और ज्ञानोपयोग आदि आभ्यन्तर पर्यायों में भेद होता है, उसी प्रकार उनके आत्मविशद्धि के परिणामों में भेद नहीं होता है। उनके प्रत्येक समय में उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धिवाले समान आत्म परिणाम होते हैं। बादर शब्द अन्तर्दीपक होने से पूर्व के समस्त गुणस्थान पर लागू होता है, क्योंकि उन सभी में स्थूल कषाय होता है। संपराय यानी कषाय तथा बादर अर्थात् स्थूल अतः स्थूल कषाय भाव होने पर बादरसंपराय होता है। तात्पर्य यह है कि जिन संयत जीवों की विशुद्धि भेदरहित है, किन्तु जिनमें स्थूल कषायरूप परिणाम अभी शेष है, उन्हें अनिवृत्तिबादरसंपराय संयत कहते हैं। इनमें उपशमक और क्षपक दोनों प्रकार के जीव होते हैं। इसी प्रकार सूक्ष्म संपराय शुद्धि संयतों में भी उपशमक और क्षपक-ऐसे दोनों प्रकार
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