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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{86} शब्द का अर्थ दर्शन या श्रद्धान होता है। मिथ्यात्व कर्म के उदय से जिन जीवों का दृष्टिकोण या श्रद्धान विपरीत, एकान्त, संशय और अज्ञान रूप तथा अन्धविश्वास युक्त होता है, उन्हें सामान्यतया मिथ्यादृष्टि जीव कहते हैं। सम्यक्त्व की विराघना को आसादन कहते हैं। जिनका सम्यक्त्व आसादन से युक्त हो उन्हें सामान्यतया सासादनसम्यग्दृष्टि जीव कहते हैं। अनन्तानुबन्धी चतुष्क में से किसी एक कषाय का उदय होने पर जो जीव सम्यक्त्व से च्युत होकर भी अभी मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं हुआ है, परंतु मिथ्यात्व की ओर अभिमुख है, ऐसा जीव सासादन सम्यग्दृष्टि कहलाता है। दृष्टि, श्रद्धा, रुचि और प्रत्यय-ये सभी पर्यायवाची शब्द हैं । जिस जीव की सम्यक् और मिथ्या-दोनों प्रकार की दृष्टि होती है, उसे सामान्यतया सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहते हैं । जिस प्रकार दही और गुड़ को मिला देने पर उसके स्वाद को पृथक् नहीं किया जाता है, किन्तु दोनों का मिला हुआ स्वाद जात्यन्तर स्वरूप को प्राप्त होता है, उसी प्रकार सम्यक्त्व और मिथ्यात्व रूप मिले हुए परिणामवाला जीव मिश्र गुणस्थानवर्ती है। मिथ्यात्व के उदय से सम्यक्त्व का सर्वथा क्षय होता है, किन्तु सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान के उदय से सम्यक्त्व का पूरी तरह नाश नहीं होता है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि नामक तृतीय गुणस्थान में दर्शन मोहनीय की सम्यक्त्व मिथ्यादृष्टि नामक प्रकृति के उदय से न मिथ्यात्व का निरन्वय नाश होता है और न ही सम्यक्त्व का निरन्वय नाश होता है, अर्थात् दोनों की एक मिश्र अवस्था बनी रहती है। इस गुणस्थान में दर्शन मोहनीय की मिथ्यात्व प्रकृति के सर्वघाती स्पर्द्धकों में से कुछ का क्षय होता है. कछ का उदय रहता है. कछ सत्ता में रहे हए मिथ्यात्व मोहनीय के स्पर्द्धक उपशमित हो जाते हैं। इस प्रकार मिथ्यात्व के सर्वघाती स्पर्द्धकों के क्षय और उपशम से तथा सम्यग्मिथ्यात्व प्रकति के सर्वघाती क्षायोपशमिक भाव रहता है। एक अन्य अपेक्षा से सम्यक्त्वमोहनीय कर्म प्रकति के देशघाती स्पर्द्धकों में से कुछ का उदय, कछ का क्षय और कछ का उपशम तथा मिथ्यात्व प्रकति के सर्वघाती स्पर्द्धकों के उदय से इस गणस्थान में क्षायोपशमिक भाव रहता है। जिसकी दृष्टि समीचीन होती है, उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं। संयम रहित सम्यग्दृष्टि जीव को असंयतसम्यग्दृष्टि कहते हैं। वे सम्यग्दृष्टि जीव तीन प्रकार के होते हैं। क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि (क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि) और औपशमिक सम्यग्दृष्टि। अनन्तानुबन्धी कषाय धतुष्क, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व मोहनीय-इन सात कर्म प्रकृतियों के सर्वथा क्षय से क्षायिक सम्यग्दर्शन होता है। इन सात प्रकृतियों के उपशम से उपशम सम्यग्दर्शन तथा सम्यक्त्वमोह नामक प्रकृति के उदय से वेदक सम्यग्दर्शन होता है। वेदक सम्यक्त्व, मिथ्यात्व मोह और मिश्रमोह नामक कर्म प्रकृतियों के स्पर्द्धकों में से कुछ के उदय, कुछ के क्षय और कछ सत्ता स्थित स्पर्द्धकों के उपशम से और सम्यक्त्व मोहनीय के देशघाती स्पर्द्धकों के उदय से हआ करता है, इसीलिए इसको क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन भी कहा जाता है। क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव कभी मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता, किन्त औपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव परिणामवश उपशम सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है। वह कभी सासादनसम्यग्दृष्टि, कभी सम्यग्मिध्यादृष्टि और कभी वेदक सम्यग्दृष्टि होता है। वेदक सम्यग्दृष्टि जीव शिथिल श्रद्धावाला होता है। जिस प्रकार वृद्ध पुरुष लकड़ी को लड़खड़ाते पकड़ता है, वैसे तत्वार्थ के स्वरूप ज्ञान के विषय में वह शिथिल होता है। इस गुणस्थान में क्षायिक सम्यक्त्व की अपेक्षा क्षायिकभाव, औपशमिक सम्यक्त्व की अपेक्षा औपशमिक भाव और वेदक सम्यक्त्व की अपेक्षा क्षायोपशमिक भाव होता है। इस गुणस्थान में असंयत या अविरत नामक जो विशेषण दिया वह अन्तर्दीपक न्याय से है। वह गुणस्थानों की असंयत अवस्था को सूचित करता है तथा जो सम्यग्दृष्टि शब्द है वह गंगा नदी के प्रवाह के समान में अनिवृत्ति को प्राप्त करता है अर्थात् अग्रिम गुणस्थानों में बना रहता है। यद्यपि पंचम गणस्थानवी जीव में संयमभाव और असंयमभाव-इन दोनों का एक साथ स्वीकार होता है, फिर भी इसमें कोई विरोध नहीं आता क्योंकि संयम और असंयम दोनों की उत्पत्ति के कारण भिन्न-भिन्न हैं। उसमें संयमभाव में त्रसहिंसा से विरतिभाव और असंयमभाव में स्थावर हिंसा से अविरति भाव है, इसीलिए इसका नाम संयतासंयत गुणस्था भाव क्षायोपशमिक भाव हैं, क्योंकि अप्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क के वर्तमानकालीन सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदय में आकर क्षय होने से और आगामी समय में उदय आने योग्य उसके सर्वघाती स्पर्द्धकों का उपशम होने से तथा प्रत्याख्यानीय कषाय के उदय Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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