________________
प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{85) स्वीकति प्राप्त है। यद्यपि डॉ. सागरमल जैन ने 'जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय' नामक ग्रन्थ में इसे यापनीय सम्प्रदाय का ग्रन्थ माना है और इसके लिए उन्होंने अनेक परिमाण भी प्रस्तुत किए है, फिर भी यापनीय सम्प्रदाय कुछ मतभेदों के साथ मूलतः तो अचेल परम्परा का ही पक्षधर रहा है, इसमें कहीं कोई विवाद भी नहीं है। डॉ. सागरमल जैन ने भी यापनीय सम्प्रदाय को अचेल परम्परा से ही सम्बन्धित माना है। अतः इस विवाद का कोई अर्थ नहीं रह जाता है कि यह दिगम्बर परम्परा का ग्रन्थ है या यापनीय परम्परा का, क्योंकि यापनीय परम्परा भी मूलतः दिगम्बर परम्परा का ही एक अंग है, उसका ही एक उप-सम्प्रदाय है। यह बात अलग है कि यापनीय सम्प्रदाय स्त्रीमुक्ति, केवलीमुक्ति आदि कुछ बातों में श्वेताम्बर परम्परा से सहमति रखता है, किन्तु इस आधार पर उसे श्वेताम्बर तो नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि वह भी अचेलता का इतना ही संपोषक है, जितनी दिगम्बर परम्परा। यहाँ हम इस विवाद में नहीं पड़ना चाहते हैं कि वह किस परम्परा का ग्रन्थ है। इतना सुस्पष्ट है कि शौरसेनी आगम साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थों में कसायपाहुड के पश्चात् इसका महत्वपूर्ण स्थान है।
हमारे शोध का विषय गुणस्थान सिद्धान्त है और इस सिद्धान्त का सांगोपांग विस्तृत विवेचना करनेवाला यदि जैन साहित्य में कोई प्राचीनतम ग्रन्थ है, तो वह षट्खण्डागम है। अतः गुणस्थान सिद्धान्त की विवेचना की दृष्टि से षट्खण्डागम का स्थान
अतिमहत्वपूर्ण है। इस ग्रन्थ का प्रारंभ ही गुणस्थानों की विवेचना से होता है। इसमें सर्वप्रथम चौदह गुणस्थानों के स्वरूप का ही निर्देश हुआ है। न केवल इतना कि यह चौदह गुणस्थानों के स्वरूप का विवेचन करता है, अपितु चौदह मार्गणाओं और चौदह गुणस्थानों के पारस्परिक सम्बन्ध को भी स्पष्ट करता है। इसकी यह विवेचना शैली पूज्यपाद की तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्ध टीका का स्मरण करा देती है। हमें ऐसा लगता है कि पूज्यपाद देवनन्दी ने सर्वार्थसिद्ध टीका के प्रथम अध्याय में गुणस्थानों का चौदह मार्गणाओं में जो अवतरण किया है, वह षट्खण्डागम पर ही आधारित है। इस प्रकार हम देखते हैं कि दिगम्बर परम्परा में गुणस्थानों की जो विवेचना उपलब्ध होती है, इसका मूल आधार षटखण्डागम ही है।
यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि षट्खण्डागम में गुणस्थान का जो विस्तृत विवरण उपलब्ध है, इसका मूल आधार क्या रहा होगा? उसका मूल आधार श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध अर्द्धमागधी आगमों को नहीं माना जा सकता है, क्योंकि अर्द्धमागधी आगमों में गुणस्थान सिद्धान्त का वैसा सुव्यवस्थित विवरण उपलब्ध नहीं होता है, जैसा कि हमें षट्खण्डागम में मिलता है । दिगम्बर परम्परा में षट्खण्डागम के सम्पादक पण्डित हीरालालजी शास्त्री ने और श्वेताम्बर परम्परा में डॉ. सागरमल जैन ने षटखण्डागम के प्रथम खण्ड जीवस्थान (जिसमें गुणस्थानों का विस्तृत विवरण उपलब्ध है) का आधार श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित 'जीवसमास' नामक ग्रन्थ को माना है। इन दोनो विद्वानों ने जीवसमास की विभिन्न गाथाओं और षटखण्डागम के विभिन्न सूत्रों के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर इसे स्पष्ट किया है कि षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड का उपजीव्य, जीवसमास रहा है। जिस प्रकार दिगम्बर परम्परा में गुणस्थान सिद्धान्त का सर्व प्रथम विस्तृत विवेचन करने वाला ग्रन्थ षटखण्डागम है, उसी प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थान सिद्धान्त का सांगोपांग परिचय देने वाला प्रथम ग्रन्थ जीवसमास है। इन दोनों ग्रन्थों की समरूपता को पण्डित हीरालाल शास्त्री ने षटखण्डागम की भूमिका में और डॉ. सागरमल जैन ने जीवसमास की भूमिका में स्पष्ट किया है। हमारा विवेच्य विषय गुणस्थान सिद्धान्त है। अतः अग्रिम पृष्ठों में हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि षटखण्डागम में गुणस्थान सिद्धान्त का विवेचन किस रूप में प्रस्तुत किया गया है। षट्खण्डागम में चौदह गुणस्थानों का सामान्य स्वरूप७६ :
षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड के सत्प्ररूपणा नामक प्रथम द्वार में नवें सूत्र से लेकर बाईसवें सूत्र तक सामान्य रूप से क्रमशः चौदह गुणस्थानों के स्वरूप का वर्णन किया गया है।
मिथ्यादृष्टि शब्द दो शब्दों मिथ्या + दृष्टि से बना है। मिथ्या, वितथ, अलीक और असत्य-ये पर्यायवाची शब्द हैं। दृष्टि
१७६ षट्खण्डागम, पृ ५ से ११, प्रकाशकः श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org